कांग्रेस में बढ़ता बिखराव: नेतृत्व संकट और अंदरूनी कलह ने बढ़ाई पार्टी की परेशानियाँ
नई दिल्ली, 7 दिसम्बर,(एजेंसियां)।देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस एक बार फिर गंभीर आंतरिक संकट से गुजर रही है। हाल के महीनों में पार्टी के भीतर उभरते मतभेदों, बाग़ी सुरों और नेतृत्व से जुड़े सवालों ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि क्या यह संगठन 2029 के चुनावी रण से पहले खुद को फिर से संभाल पाएगा या नहीं। लगातार चुनावी पराजयों, संगठनात्मक कमजोरी और शीर्ष नेतृत्व के निर्णयों पर उठते सवालों ने पार्टी को ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है, जहाँ से वापसी कठिन होती जा रही है।
कांग्रेस में असंतोष का सबसे बड़ा कारण नेतृत्व की अस्पष्टता है। राहुल गांधी लगातार देशभर में सक्रिय भूमिकाएँ निभाते हैं, यात्राएँ करते हैं, बयानबाज़ी करते हैं, लेकिन वह औपचारिक रूप से पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में नहीं लेते। सोनिया गांधी अब सक्रिय राजनीति से दूर हैं और संगठनात्मक नेतृत्व आंशिक रूप से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के हाथों में है। लेकिन पार्टी की रणनीति, चुनावी निर्णय और महत्वपूर्ण रुख अभी भी गांधी परिवार की ओर ही देखा जाता है। इसी दोहरी कमान ने पार्टी में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है।
कई वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि पार्टी में संवाद की कमी और निर्णयों में पारदर्शिता का अभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। कुछ पूर्व मुख्यमंत्री और अनुभवी नेता खुले मंचों पर भी अपनी नाराज़गी जाहिर कर चुके हैं। उनका यह मानना है कि अगर कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर BJP के मुकाबले खड़ा होना है, तो उसे पहले अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करना होगा, शीर्ष नेतृत्व से स्पष्ट संदेश आने चाहिए और प्रदेश स्तर पर नेताओं को काम करने की स्वतंत्रता देनी चाहिए। लेकिन हाल के घटनाक्रमों में यह स्थिति उलटी ही नजर आती है।
राज्यों में पार्टी की स्थिति और भी कमजोर दिखती है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और पंजाब जैसे राज्य, जहाँ कभी कांग्रेस का मजबूत आधार था, अब बिखराव और गुटबाज़ी का सबसे बड़ा केंद्र बन चुके हैं। राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के विवाद ने संगठन को वर्षों तक कमजोर रखा। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की विदाई और उसके बाद की उठापटक ने आम आदमी पार्टी को बड़ा राजनीतिक स्पेस दे दिया। मध्य प्रदेश में बार-बार नेतृत्व बदलने और संगठन की कमजोर पकड़ ने पार्टी को पुनर्जीवित होने का मौका ही नहीं दिया। इन सभी राज्यों में कांग्रेस का संकट सिर्फ चुनाव हारना नहीं, बल्कि हार के बाद भी आत्ममंथन की कमी है।
इसके अलावा कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि वह राष्ट्रीय मुद्दों पर एक सशक्त और एकजुट आवाज़ पेश नहीं कर पा रही। महंगाई, बेरोजगारी, कृषि, रक्षा और विदेश नीति जैसे विषयों पर पार्टी के भीतर भी अलग-अलग स्वर सुनाई देते हैं। यह स्थिति तब और चुनौतीपूर्ण हो जाती है जब पार्टी के कुछ नेता मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म्स पर ऐसे बयान देते हैं, जो पार्टी लाइन से अलग होते हैं और संगठन की छवि को नुकसान पहुंचाते हैं। केंद्रीकृत निर्णय प्रक्रिया और जमीनी स्तर के नेताओं की अनदेखी ने यह खाई और गहरी कर दी है।
दूसरी ओर, क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस के रिश्ते भी उतने सहज नहीं हैं। कई क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस को गठबंधन में 'बड़ी पार्टी' के अहंकार से ग्रस्त मानती हैं, जबकि कांग्रेस का कहना है कि राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका को कम करके आंकना भी उचित नहीं। यह रस्साकशी 2024 के बाद और तेज हो गई है। 2029 के चुनावों को ध्यान में रखकर विपक्षी दलों की एकजुटता की संभावनाएँ तलाशने की कोशिशें चल रही हैं, लेकिन कांग्रेस में चल रहा यह आंतरिक अशांति इस प्रयास को भी कमजोर कर रहा है।
कांग्रेस के भीतर कई पार्टी कार्यकर्ता और युवा नेता मानते हैं कि अगर राहुल गांधी औपचारिक रूप से पार्टी की कमान संभालें और संगठनात्मक सुधार को प्राथमिकता दें, तो पार्टी का मनोबल फिर मजबूत हो सकता है। उनका तर्क है कि राहुल गांधी ने अपनी यात्राओं के दौरान देश के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को करीब से समझा है और युवा वर्ग व कमजोर तबकों के बीच उनकी स्वीकार्यता बनी हुई है। लेकिन नेतृत्व के निर्णय में देरी और लगातार चल रहे असमंजस ने इस ऊर्जा को भी प्रभावी दिशा नहीं दे पाई है।
वहीं, कुछ नेता यह सुझाव भी दे रहे हैं कि कांग्रेस को नए चेहरों को आगे लाना चाहिए, प्रदेश अध्यक्षों के चयन में वही पुराने फार्मूले न अपनाए जाएँ, और टिकट वितरण के दौरान जमीनी कार्यकर्ताओं की राय को प्राथमिकता मिले। लेकिन इन सुझावों को लागू करने के लिए सबसे पहले वह राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए, जो फिलहाल कांग्रेस में बिखरी हुई दिखाई देती है।
इन सबके बीच कांग्रेस के सामने चुनौती सिर्फ संगठनात्मक नहीं है, बल्कि वैचारिक भी है। पार्टी को यह तय करना होगा कि वह खुद को किस तरह के राजनीतिक नैरेटिव के रूप में पेश करना चाहती है—एक उदारवादी, लोकतांत्रिक विपक्ष के रूप में या एक आक्रामक तेजतर्रार पार्टी के रूप में। आज की राजनीतिक परिस्थितियों में धुंधली और अस्पष्ट लाइन पर खड़ी पार्टी को जनता से स्पष्ट जनादेश मिलना मुश्किल है।
हालांकि कांग्रेस के कुछ नेता अब भी यह दावा करते हैं कि पार्टी समय के साथ खुद को फिर से मजबूत करने में सक्षम है। उनका मानना है कि देश में अब भी एक बड़े वर्ग में कांग्रेस के प्रति विश्वास बचा हुआ है, बस उसे सही दिशा और सही नेतृत्व की जरूरत है। लेकिन मौजूदा हालात बताते हैं कि कांग्रेस को अगर राष्ट्रीय राजनीति में फिर से प्रभावशाली भूमिका निभानी है, तो उसे सबसे पहले अपने अंदर के बिखराव को दूर करना होगा, क्योंकि एक कमजोर और विभाजित संगठन जनता का भरोसा जीत ही नहीं सकता।

