बंगाल में बाबरी के शिलान्यास के जवाब में गूँजा गीता पाठ

बंगाल में बाबरी के शिलान्यास के जवाब में गूँजा गीता पाठ

Sanatan Sanskriti Sansad में संतों ने तुष्टिकरण की राजनीति को दिया आध्यात्मिक उत्तर

नई दिल्ली, 8 दिसम्बर,(एजेंसियां)। पश्चिम बंगाल की राजनीति और समाज में रविवार का दिन एक खास संदेश छोड़ गया। कोलकाता के ऐतिहासिक ब्रिगेड परेड ग्राउंड में लाखों श्रद्धालुओं और साधु–संतों की उपस्थिति में ‘पंच लाखो कोंठे गीता पाठ’ कार्यक्रम एक आध्यात्मिक उत्सव ही नहीं, बल्कि हालिया घटनाओं के प्रति संतुलित, शांत और सांस्कृतिक प्रतिक्रिया के रूप में भी उभरा। ‘सनातन संस्कृति संसद’ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया कि बंगाल की सांस्कृतिक चेतना क्षणिक राजनीतिक उकसावों से कहीं अधिक गहरी और व्यापक है।

कार्यक्रम में राज्यभर के मठों और आश्रमों के संतों, महात्माओं, आचार्यों और लाखों भक्तों ने एक स्वर में भगवद्गीता के प्रथम, नवम और अठारहवें अध्याय का सामूहिक पाठ किया। भगवा वस्त्रों में सजे संतों की उपस्थिति, हवा में लहराते तिरंगे और ‘हरे कृष्ण’ की मधुर ध्वनि ने एक ऐसा वातावरण रचा जिसने मैदान को पूरी तरह आध्यात्मिक उत्साह और सांस्कृतिक गौरव से भर दिया। कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सी.वी. आनंद बोस, भाजपा के राष्ट्रीय नेता, केंद्रीय मंत्री और कई जनप्रतिनिधि भी उपस्थित रहे, हालांकि मंच की गतिविधियाँ पूर्णतः आध्यात्मिक रहीं।

यह विशाल आयोजन ऐसे समय हुआ है जब एक दिन पहले ही तृणमूल कांग्रेस के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने मुर्शिदाबाद के बेलडांगा में ‘बाबरी मस्जिद’ की तर्ज़ पर एक मस्जिद की नींव रखी थी। इस कदम को व्यापक रूप से राजनीतिक रूप से प्रेरित, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देने वाला और धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास माना गया। कबीर के इस कदम ने बंगाल की राजनीति में तीखी प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कीं और कई धार्मिक–सांस्कृतिक संगठन इसे तुष्टिकरण की राजनीति का उदाहरण बता रहे थे। इसी पृष्ठभूमि के बीच गीता पाठ का यह आयोजन एक वैकल्पिक संदेश के रूप में सामने आया—शांत, संयमित और सांस्कृतिक रूप से दृढ़।

कार्यक्रम के दौरान राज्यपाल आनंद बोस ने कहा कि बंगाल “धार्मिक अहंकार को समाप्त करने और एक सकारात्मक परिवर्तन की ओर बढ़ने” को तैयार है। उन्होंने गीता के श्लोकों का उल्लेख करते हुए कहा कि धर्म की पुनर्स्थापना ही समाज को एकजुट रखने की सबसे बड़ी शक्ति है। उन्होंने यह भी कहा कि आध्यात्मिक चेतना किसी भी राजनीतिक संघर्ष से कहीं अधिक प्रभावशाली और दीर्घकालिक होती है।

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सियासी गलियारों में भी यह आयोजन चर्चा में रहा। भाजपा ने इसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राज्य की आध्यात्मिक शक्ति के उभार का प्रतीक बताया, जबकि तृणमूल कांग्रेस के नेता कुनाल घोष ने इसे गीता का ‘राजनीतिक दुरुपयोग’ कहा। हालांकि कार्यक्रम स्थल पर उपस्थित संतों और आयोजकों ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि इसका उद्देश्य पूरी तरह आध्यात्मिक है और धर्म को राजनीति की भाषा में नहीं, बल्कि सनातन परंपरा की गरिमा के साथ प्रस्तुत करना है।

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दरअसल, हुमायूं कबीर द्वारा ‘बाबरी शैली’ में मस्जिद का शिलान्यास एक प्रत्यक्ष राजनीतिक दांव था, जिसमें धार्मिक प्रतीकों का उपयोग जनभावनाओं को प्रभावित करने के लिए किया गया। यह कदम समाज को बांटने वाली राजनीति की ओर संकेत करता था। इसके बिल्कुल विपरीत, गीता पाठ का यह महासंगम राजनीति नहीं, बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान और आध्यात्मिक एकता का स्वरूप लेकर सामने आया। यहाँ कोई प्रतिशोध, उकसावा या भीड़ को भड़काने वाली भाषा नहीं थी, बल्कि एक शांत, संतुलित और गहन आध्यात्मिक उत्तर था।

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जब लाखों कंठों ने एक स्वर में गीता के श्लोकों का पाठ किया, तो वह मात्र धार्मिक अनुष्ठान नहीं था। वह बंगाल की उस सांस्कृतिक आत्मा का उद्भव था जो सदियों से विचार, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता से समृद्ध रही है। सनातन परंपरा का यह प्रतीकात्मक उत्तर दर्शाता है कि धर्म सत्ता संघर्ष का औजार नहीं, बल्कि समाज का नैतिक आधार है।

साधु–संतों ने यह भी संकेत दिया कि सनातन संस्कृति का प्रभाव किसी भी टकराव या प्रतिक्रिया से नहीं, बल्कि अपनी आंतरिक शक्ति, मर्यादा और समावेशिता से स्थापित होता है। जहाँ कुछ लोग धार्मिक प्रतीकों को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं, वहीं गीता पाठ का यह विराट आयोजन यह संदेश देकर लौटा कि भारत में धर्म का उत्तर तलवार से नहीं, बल्कि श्लोक से दिया जाता है; विभाजन का उत्तर एकता से और उकसावे का उत्तर शांति से दिया जाता है।