...फिर कौन कौन मराठी और कौन पर-प्रांतीय?
बिहार के मगध क्षेत्र से थे उद्धव और राज के परदादा कृष्णाजी ठाकरे
डॉ. मोतीलाल गुप्ता आदित्य
भारत की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। इतिहास गवाह है कि विश्व में अलग-अलग देशों से लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत में पहुंचे और बसे और भारत में ही रच-बस गए। बहुत बार शक, हूण तथा इस्लामिक आक्रमणकारियों आदि की अन्य देशों से आई सेनाओं के सैनिक भी हमारे बीच बस गए और भारत का हिस्सा बन गए। कुछ विद्वानों का मानना है कि सक्सेना उपनाम वाले लोग शक या कुषाण वंश से जुड़े हो सकते हैं, जो प्राचीन काल में भारत में शासन करते थे। सक्सेना जाति कायस्थ समुदाय से जुड़ी हुई है, जो एक प्राचीन और प्रतिष्ठित समुदाय है। हालांकि इस संबंध में सभी इतिहासकार एक मत नहीं है। अगर इतिहास में जाकर झांकेंगे तो पता लगेगा कि जो आज किसी क्षेत्र के मूल निवासी माने जाते हैं अतीत में वे देश विदेश से, कहीं और से आकर वहां बसे थे। देश-विदेश से आकर किसी राज्य के मूल निवासी बनने वालों समुदायों की बड़ी संख्या है।
अगर भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें तो कब, कौन, कहां से आकर कहां बसा यदि इस पर अनुसंधान किया जाए तो सूची बहुत लंबी हो जाएगी। जिन्हें हम जहां का मूल निवासी मानते हैं, पता लगेगा उनके पूर्वज तो कुछ पीढ़ी पहले या कई सौ साल पहले कहीं और से आकर वहां बसे थे। इस समय क्योंकि महाराष्ट्र में राजनीतिक ध्रुवीकरण के रूप में फिर से मराठीवाद या मराठी भाषा का मुद्दा उठा है तो चलो यह भी जान लेते हैं कि कौन मराठी और कौन परप्रांतीय? इस दृष्टि से यदि रामायण कल को देखें तो भगवान श्री राम के परम भक्त हनुमान जी का नाम सामने आता है। मान्यता के अनुसार राम भक्त हनुमान जी का जन्म स्थान है अंजनवेली/अंजनरी। यह स्थान महाराष्ट्र के नासिक जिले के त्र्यंबकेश्वर के पास स्थित है। यहां एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसे अंजनेरी पर्वत कहा जाता है। मान्यता है कि यहीं माता अंजनी ने हनुमान जी को जन्म दिया था, इसलिए इसका नाम अंजनेरी पड़ा। तब तो सुग्रीव भी वहीं कहीं पर रहे होंगे, जिन्होंने सीता माता की खोज में और लंका विजय में भगवान श्री राम की मदद की। तब तो हिंदी-मराठी का कोई मुद्दा नहीं बना।
मध्य प्रदेश में ग्वालियर का सिंधिया घराना मूलतः महाराष्ट्र से है। यह वंश मराठा साम्राज्य से जुड़ा हुआ है। राणोजी एक मराठा सरदार थे, जो पेशवा बाजीराव प्रथम के अधीन कार्य करते थे। राणोजी सिंधिया को उत्तर भारत के मालवा और ग्वालियर क्षेत्र की जिम्मेदारी दी गई थी। यहीं से उन्होंने धीरे-धीरे ग्वालियर को अपना मुख्यालय बनाया और एक स्वतंत्र रियासत की नींव रखी। बाद में महादजी सिंधिया और दौलत राव सिंधिया जैसे शासकों ने ग्वालियर राज्य को एक शक्तिशाली मराठा रियासत में बदल दिया। लेकिन आज वे हिंदी भाषी है और उनकी पहचान मराठी के तौर पर नहीं होती।
मालवा, जो वर्तमान में मध्य प्रदेश में है उसकी शासिका अहिल्याबाई होल्कर होल्कर वंश की एक महान और न्यायप्रिय रानी थीं, जिन्होंने इंदौर को अपनी राजधानी बनाया और 18वीं शताब्दी में शासन किया। उनका जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी नामक गांव में एक मराठा कुनबी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम माणकोजी शिंदे था। अहिल्याबाई का विवाह खंडेराव होल्कर से हुआ, जो मालवा के होल्कर वंश के राजा मल्हारराव होल्कर के पुत्र थे। पति और पुत्र की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने राज्य की बागडोर संभाली और काशी, गया, सोमनाथ, द्वारिका
दक्षिण भारतीय फिल्मों के सुपरस्टार रजनीकांत मूलतः मराठी हैं लेकिन दक्षिण भारत के लोगों से उन्हें जितना प्रेम नहीं मिला उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमें कभी नहीं पता था कि हरियाणा में भी मराठियों के वंशज रहते हैं। मुझे याद आता है कि पिछले वर्ष खबर आई थी कि महाराष्ट्र के कुछ लोग हरियाणा के गांव में अपने मराठी भाइयों से मिलने के लिए गए थे। पता लगा कि पानीपत के युद्ध में लड़ने आई सेना के कुछ सैनिक हरियाणा में ही रह गए थे। उनके वंशज आज भी यहां के समाज के साथ घुल-मिलकर रहते हैं। कहना न होगा कि शिक्षा, व्यापार-व्यवसाय आदि के चलते बड़ी संख्या में देश के विभिन्न भागों में बसे हैं और अनेक अब वहीं के होकर रह गए हैं।
इसके ठीक विपरीत भी कई बड़े उदाहरण हैं। इतिहासकारों का मानना है कि महाराष्ट्र और राष्ट्र-गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज के पूर्वज राजस्थान के मेवाड़ या उदयपुर क्षेत्र से आए थे। वे राजपूतों की सिसोदिया शाखा के माने जाते हैं, हालांकि इस पर कुछ ऐतिहासिक बहस भी है। उनके पूर्वजों में एक प्रमुख व्यक्ति राजा भोज के वंशज माने जाने वाले बहिरजी (या बहादुरजी) थे, जो पहले देवगिरी आए। बाद में उनके वंशज महाराष्ट्र के पुणे क्षेत्र में बस गए। सबसे बढ़कर बात तो यह है कि जो अब मराठियों के और मराठी भाषा के ठेकेदार बने हुए हैं, खुद उनके पूर्वज भी तो मूलतः मराठी नहीं हैं। माना जाता है कि उद्धव और राज ठाकरे के परदादा कृष्णाजी ठाकरे मूल रूप से बिहार के मगध क्षेत्र से संबंध रखते थे। वे एक कायस्थ परिवार से थे, और बाद में काम-धंधे की तलाश में उत्तर भारत से मध्य प्रदेश और फिर महाराष्ट्र की ओर आए। इनके दादा केशव सीताराम ठाकरे, जिन्हें प्रबोधनकार ठाकरे के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म 1903 में हुआ था। वे मुंबई में बस गए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार ठाकरे परिवार 19वीं शताब्दी के अंत या 20वीं शताब्दी की शुरुआत में महाराष्ट्र आया। उन्होंने दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरोध में मराठी अस्मिता को लेकर आवाज़ उठाई थी, जो आगे चलकर बाल ठाकरे की राजनीति की नींव बनी। महाराष्ट्र में अनेक ऐसी जातियां वर्ग मिलेंगे जो की मराठी समाज का अभिन्न अंग है लेकिन थोड़ा पीछे जाएंगे तो पता लगेगा कि वे 100-200 वर्ष पूर्व कहीं और से आकर यहां आकर बसे थे।
सत्ता की राजनीति और देश प्रेम में सबसे बड़ा अंतर यह है कि देश प्रेम देशवासियों को जोड़ने की कोशिश करता है और सत्ता की राजनीति अपना वोट बैंक बनाने के लिए और वोटो का ध्रुवीकरण करने के लिए देशवासियों को बांटने की कोशिश करती हैं। इसके लिए जाति, क्षेत्र, भाषा और मजहब आदि उपकरणों का सहारा लिया जाता है। इसका एक बड़ा उदाहरण हम महाराष्ट्र में भी देख सकते हैं। यदि हम देश प्रेमियों की सूची देखें तो महाराष्ट्र के सभी स्वतंत्रता सेनानी, चाहे वे क्रांतिकारी विचारधारा के रहे हों या अहिंसावादी विचारधारा के, दोनों ने ही हिंदी को न केवल अपनाया बल्कि उसका प्रचार-प्रसार भी किया। इस मामले में महाराष्ट्र सदा अग्रणी रहा है।
सबसे पहले हम वीर विनायक दामोदर सावरकर की ही बात कर लेते हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम में झोंक दिया था। वीर विनायक दामोदर सावरकर ने सेलुलर जेल (काला पानी), अंडमान में कैद के दौरान कैदियों को हिंदी सिखाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। उन्होंने न केवल स्वराज के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से हिंदी के प्रचार में भी महान योगदान दिया। जेल में उन्हें कठोर यातनाएं दी गईं फिर भी उन्होंने आत्मबल को बनाए रखते हुए कैदियों को हिंदी सिखाने का कार्य किया। उनका उद्देश्य हिंदी भाषा को एकता का माध्यम बनाना था। सावरकर ने महसूस किया कि जेल में उत्तर भारत, दक्षिण भारत, बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र
सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और गणेश उत्सव का प्रारंभ करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हिंदी के प्रबल समर्थक थे। वे मुख्य रूप से मराठी और संस्कृत में लिखते थे, परंतु राष्ट्रीय एकता के लिए वे हिंदी को भारत की साझा भाषा मानते थे। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के विचार का समर्थन किया। विनोबा भावे, गांधीजी के अनुयायी और भूदान आंदोलन के प्रवर्तक थे। उन्होंने हिंदी को जनभाषा माना और देशभर में अपने प्रवचनों में हिंदी का उपयोग किया। वे हिंदी, मराठी, संस्कृत, उर्दू,
साने गुरुजी (पांडुरंग सदाशिव साने) बहुत ही लोकप्रिय मराठी लेखक, शिक्षक और स्वतंत्रता सेनानी। उन्होंने शामची आई जैसी कालजयी रचना लिखी जिसे हिंदी में भी अनुदित किया गया जो बहुत लोकप्रिय हुई। वे हिंदी प्रचार सभा से भी जुड़े रहे और उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कोल्हापुर के राजा, राजर्षि शाहू जी महाराज ने शिक्षा और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया। उन्होंने हिंदी को दलितों और पिछड़े वर्गों तक पहुंचाने में योगदान दिया, ताकि वे राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ सकें।
हिंदी और मराठी का सैकड़ों वर्ष पुराना नाता है और दोनों की भाषा-संस्कृति आपस में मिली जुली है। अगर हम यह कहें कि हिंदीतर भाषी राज्यों में महाराष्ट्र हिंदी के सर्वाधिक अनुकूल है, तो यह अनुचित न होगा। इसी के चलते महाराष्ट्र में हिंदी के प्रचार-प्रसार की अनेक संस्थाएं कार्यरत हैं। यहां तक कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना किसी हिंदी भाषी राज्य में नहीं बल्कि महाराष्ट्र के वर्धा में की गई।
महाराष्ट्र के गौरव शौर्य और इतिहास का हिंदी भाषी क्षेत्र से अटूट संबंध है, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी दोनों के बीच अतीत के गहरे संबंध हैं। इसे नफरत की राजनीति अलग नहीं किया जा सकता। ऐसा करना न केवल अपने इतिहास को नकारना है, बल्कि यह राष्ट्रहित और महाराष्ट्र हित के भी प्रतिकूल है। इसलिए यह आवश्यक है की राजनीति की अपनी दुकान चलाने के लिए कुछ नेताओं द्वारा समाज में क्षेत्र और भाषा के नाम पर अलगाव को नकारा जाए और राष्ट्र के साथ-साथ महाराष्ट्र को सशक्त किया जाए।
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