2863 प्राकृतिक आपदाओं में 552 लोगों की जान गई
आपदा के 12 वर्षों में हुआ करोड़ों का नुकसान
सुरेश एस डुग्गर
जम्मू, 19 अगस्त। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) की पत्रिका मौसम में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि पिछले एक दशक में जम्मू कश्मीर में प्राकृतिक आपदा की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिससे सैकड़ों लोगों की जान गई है। 2010 और 2022 के बीच, इस क्षेत्र में 2,863 घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें 552 मौतें हुईं। बिजली गिरने की सबसे ज्यादा घटनाएं 1,942 रहीं, इसके बाद भारी वर्षा के 409 और अचानक बाढ़ के 168 मामले आए। भारी बर्फबारी सबसे घातक साबित हुई, जिसमें 42 घटनाओं में 182 मौतें हुईं।
कुपवाड़ा, बांडीपोरा, बारामुल्ला और गंदरबल में बर्फबारी से सबसे ज्यादा मौतें हुईं, जबकि किश्तवाड़, अनंतनाग, गंदरबल और डोडा अचानक बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। आईएमडी के वैज्ञानिकों और एक आईसीएआर शोधकर्ता द्वारा लिखित इस अध्ययन में 10 आईएमडी केंद्रों और चार दशकों के वर्षा रिकार्ड के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया। निष्कर्षों से पता चला कि भारी बर्फबारी और मृत्यु दर के बीच एक मजबूत संबंध है। आईएमडी श्रीनगर के निदेशक मुख्तार अहमद ने आशंका जाहिर की कि जलवायु परिवर्तन से ऐसी घटनाएं और बढ़ेंगी, क्योंकि ऊंचे क्षेत्रों में वायुमंडल की नमी क्षमता पहले ही 7-10 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है। उन्होंने मजबूत आपदा प्रबंधन की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया, विशेष रूप से किश्तवाड़ में मचेल यात्रा जैसे संवेदनशील तीर्थ मार्गों पर, जो हाल ही में बादल फटने से तबाह हो गए थे।
किश्तवाड़ में प्रशासन की लापरवाहियां सामने आईं
किश्तवाड़ में बादल फटने की दुखद घटना ने एक बार फिर जलवायु परिवर्तन के कारण जम्मू कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ी प्राकृतिक आपदाओं की तरफ ध्यान दिलाया है। इस आपदा के लिए मुख्यतः प्रकृति के प्रकोप को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, लेकिन यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या स्थानीय प्रशासन ने बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में तीर्थयात्रियों और बस्तियों के लिए जोखिम को कम करने के लिए पर्याप्त सावधानियां बरती थीं?
पर्यावरणविदों के अनुसार, किश्तवाड़ की घाटी प्रणाली (नदियों, नालों या ग्लेशियरों द्वारा निर्मित परस्पर जुड़ी घाटियों का एक नेटवर्क) में लगभग सभी बस्तियां हिमालय के अन्य हिस्सों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक ऊंचाई पर स्थित हैं। इसके अलावा, आंतरिक घाटियों में कई बस्तियां हैं जहां बादल फटने की घटनाओं की संभावना अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। उन्होंने बताया कि संकरी घाटियां अभूतपूर्व बारिश के दौरान पानी के अचानक बढ़ने को झेल नहीं पातीं। परिणामस्वरूप, बाढ़ के मैदानों के किनारे बसी बस्तियां अक्सर इसका खामियाजा भुगतती हैं, जैसा कि हाल ही में किश्तवाड़ जिले के पाडर के चिशोती इलाके में देखा गया।
इन खतरों से अवगत होने के बावजूद, पिछले कई वर्षों में मचेल माता यात्रा मार्ग के साथ निचले बाढ़ के मैदानों में कई अस्थायी और अर्ध-स्थायी ढांचे बन गए हैं। इसके अलावा, प्रशासन ने इन बाढ़ के मैदानों पर लंगर स्थापित करने की अनुमति दी, जबकि यह सर्वविदित है कि ऐसे क्षेत्र भारी बारिश के दौरान प्राकृतिक जल निकासी चैनलों के रूप में कार्य करते हैं और वहां किसी भी अतिक्रमण से अचानक बाढ़ के दौरान नुकसान का खतरा काफी बढ़ जाता है। आपदा प्रबंधन विशेषज्ञों ने कहा कि स्थानीय प्रशासन को कम से कम बाढ़ के मैदानों में सामुदायिक रसोई की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी, खासकर जुलाई 2022 में अमरनाथ गुफा के पास बादल फटने की घटना को देखते हुए, जिसने समान संवेदनशील क्षेत्रों में स्थापित शिविरों और अन्य अस्थायी ढांचों को बुरी तरह प्रभावित किया था। उन्होंने आगे कहा कि अगर उस घटना से सबक लिया गया होता और सुधारात्मक उपाय लागू किए गए होते, तो चिशोती में हुए नुकसान को काफी हद तक टाला जा सकता था।
इस घटना ने मौसम संबंधी जानकारी के इस्तेमाल को लेकर भी चिंताएं पैदा की हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि प्रशासन तीर्थयात्रा के दौरान भारत मौसम विज्ञान विभाग से नियमित पूर्वानुमान प्राप्त कर रहा था या नहीं। उन्होंने आगे कहा कि अगर पूर्वानुमान उपलब्ध थे, तो सवाल उठता है कि प्रतिकूल मौसम की चेतावनी के दौरान यात्रा को स्थगित क्यों नहीं किया गया। अगर नहीं, तो यह योजना में एक महत्वपूर्ण कमी को दर्शाता है, यह देखते हुए कि पिछले साल दो लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं ने मचेल माता मंदिर का दौरा किया था।
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