न्यायिक आतंकवाद न बने न्यायिक सक्रियता
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा
कार्यपालिका के नाकाम होने पर न्यायिक हस्तक्षेप जरूरी
नई दिल्ली, 11 जून (एजेंसियां)। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा कि देश में न्यायिक सक्रियता की भूमिका बनी रहेगी, लेकिन इसे इतना नहीं बढ़ाना चाहिए कि यह न्यायिक आतंकवाद का रूप ले ले। मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि जब विधायिका और कार्यपालिका नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने में असफल रहती है, तब न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है। लेकिन इस हस्तक्षेप की सीमा और मर्यादा होनी चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्यायिक सक्रियता बनी रहेगी, लेकिन कभी-कभी जब सीमाएं लांघी जाती हैं और न्यायपालिका उन क्षेत्रों में प्रवेश करती है जहां उसे नहीं करना चाहिए, तब यह चिंता का विषय बन जाता है। जस्टिस गवई ने कहा कि न्यायिक समीक्षा का उपयोग केवल विशेष परिस्थितियों में होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह शक्ति केवल तब प्रयोग की जानी चाहिए जब कोई कानून संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता हो या किसी मौलिक अधिकार के प्रतिकूल हो या जब वह पूरी तरह मनमाना व भेदभावपूर्ण हो।
मुख्य न्यायाधीश ने ऑक्सफोर्ड यूनियन में आयोजित विचार गोष्ठी में यह बात कही। अपने संबोधन में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि एक समय था जब लाखों भारतीयों को अछूत कहा जाता था, लेकिन आज उसी समुदाय से आए व्यक्ति को देश की सर्वोच्च न्यायिक जिम्मेदारी मिली है जो भारतीय संविधान की समानता की भावना का प्रत्यक्ष उदाहरण है। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान उन लोगों की धड़कनों को संजोए हुए है जिन्हें कभी सुना नहीं गया। यह न केवल अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि उन्हें सशक्त करने, सुधारने और न्याय दिलाने के लिए राज्य को बाध्य करता है। मुख्य न्यायाधीश गवई ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों को उदाहरण के तौर पर पेश करते हुए कहा कि लोकतंत्र तभी टिकाऊ होता है जब सत्ता केवल संस्थाओं के बीच ही नहीं, बल्कि समुदायों के बीच भी वितरित हो।
मुख्य न्यायाधीश के ये बयान उस व्यापक बहस के बीच आए हैं, जिसमें यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या न्यायपालिका अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रही है. ऐसे में मुख्य न्यायाधीश के विचार न्यायपालिका की भूमिका, उसकी सीमाएं और उसकी जिम्मेदारियों को लेकर एक संतुलित दृष्टिकोण पेश करते हैं।
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