यूपी में भांग के डंठल से बन रहा बायो फाइबर
कपास छोड़ कर अपनाइए भांग से बना स्वास्थ्यप्रद वस्त्र
सोखते हैं चार गुना अधिक कार्बन डाईऑक्साइड
लखनऊ, 29 जून (एजेंसियां)। उत्तर प्रदेश के संभल जिले में पहली बार हेम्प वेस्ट यानी भांग के डंठलों से प्राकृतिक फाइबर तैयार किया जा रहा है। इस पहल के जरिए न केवल जलवायु परिवर्तन से मुकाबला किया जा रहा है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और आमदनी के नए अवसर भी पैदा किए जा रहे हैं।
भांग के पौधे अन्य पौधों की तुलना में चार गुना कार्बन डाईऑक्साइड अधिक सोखते हैं, जिससे यह पर्यावरण संरक्षण में भी अहम भूमिका निभाते हैं। इसकी विशेषता यह है कि इससे रेशा बनाने में कपास की तुलना में 10 गुना कम पानी खर्च होता है। साथ ही, यह कपास से 2.5 गुना अधिक फाइबर देता है। आत्मनिर्भर कृषक समन्वित विकास और एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर फंड के जरिए यह अभिनव प्रयोग धरातल पर उतर रहा है।
किसी समय बेकार माने जाने वाले भांग के डंठलों को अब उच्च गुणवत्ता वाले प्राकृतिक रेशा और उससे बने उत्पादों जैसे कपड़ा, कागज और बायो-प्लास्टिक में बदला जा रहा है। इससे न सिर्फ कपड़ा या कागज बनता है, बल्कि इसका उपयोग बायो-प्लास्टिक व निर्माण सामग्री जैसी तकनीकी चीजों में भी हो रहा है। भारत हेम्प एग्रो प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक आयुष सिंह ने बताया कि 200 से ज्यादा ग्रामीण इस इनोवेशन से जुड़ चुके हैं, जिनकी आमदनी पहले के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई है। संभल में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट के प्रारंभिक चरण में ही लगभग पांच लाख रुपए अर्जित कर इसकी व्यावहारिकता और संभावनाएं साबित हो रही हैं।
उत्तर प्रदेश के संभल जिले में हुई यह अनोखी पहल पर्यावरण संरक्षण के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी सहारा दे रही है। जिले में पहली बार हेम्प वेस्ट, यानी भांग के बेकार समझे जाने वाले डंठलों से उच्च गुणवत्ता वाला प्राकृतिक फाइबर तैयार किया जा रहा है। यह पहल प्रदेश सरकार की पर्यावरण संरक्षण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में मदद कर रही है। एक समय था जब भांग के इन डंठलों को कचड़ा मानकर जला दिया जाता था, जिससे केवल प्रदूषण फैलता था। लेकिन अब, एक अभिनव प्रयोग के तहत इन्हीं डंठलों को कीमती प्राकृतिक रेशे में बदला जा रहा है। इस रेशे से कपड़ा, कागज, बायो-प्लास्टिक और यहां तक कि निर्माण सामग्री जैसी तकनीकी चीजें भी बनाई जा रही हैं। इस नवाचार को आत्मनिर्भर कृषक समन्वित विकास और एग्री इंफ्रास्ट्रक्चर फंड जैसी योजनाओं का सहयोग प्राप्त है।
यह पहल पर्यावरण के लिहाज से भी बेहद खास है। विशेषज्ञ बताते हैं कि हेम्प के पौधे दूसरे पौधों की तुलना में चार गुना तक अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता रखते हैं। इसके अलावा, हेम्प से रेशा बनाने की प्रक्रिया में कपास की तुलना में 10 गुना कम पानी की खपत होती है, जबकि यह पैदावार में कपास से 2.5 गुना अधिक फाइबर देता है। इस तरह यह पहल जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में भी एक प्रमुख हथियार बन रही है। इस प्रोजेक्ट का सबसे बड़ा फायदा ग्रामीण समुदाय को मिल रहा है। भारत हेम्प एग्रो प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक आयुष सिंह बताते हैं कि वर्तमान में 200 से अधिक ग्रामीण इस इनोवेशन से सीधे तौर पर जुड़ चुके हैं। इससे उनकी आमदनी पहले के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई है। प्रोजेक्ट के शुरुआती चरण में ही लगभग 5 लाख रुपये की कमाई ने इसकी सफलता और भविष्य की संभावनाओं को साबित कर दिया है। हेम्प की खेती और प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा हो रहे हैं, जिससे शहरों की ओर होने वाले पलायन पर भी रोक लगने की उम्मीद है। यह पहल कपास, प्लास्टिक और लकड़ी के आयात पर देश की निर्भरता को भी कम करेगी।
उल्लेखनीय है कि भांग का कपड़ा कैनबिस सैटिवा पौधे के लंबे बास्ट रेशों से बना एक टिकाऊ कपड़ा होता है। यह अपनी उच्च तन्य शक्ति, स्थायित्व और पर्यावरणीय क्षरण के प्रतिरोध के लिए मूल्यवान है। भांग का इस्तेमाल 8,000 से अधिक वर्षों से कपड़ों, रस्सियों, पाल और कागज समेत कई तरह के कामों में किया जाता रहा है। 20वीं सदी में मारिजुआना के साथ इसके जुड़ाव और सिंथेटिक फाइबर के उदय के कारण इसका उत्पादन कम हो गया। लेकिन हाल के वर्षों में, पर्यावरण अनुकूल और टिकाऊ सामग्रियों की बढ़ती मांग के कारण, कपड़ा उद्योग में भांग के कपड़े का पुनरुत्थान हुआ है।
भांग और कपास को तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कपास विश्व स्तर पर सबसे अधिक जल-गहन फसलों में से एक है, एक किलोग्राम कपड़ा बनाने के लिए लगभग 10,000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है, तथा 250 ग्राम की एक टी-शर्ट के लिए लगभग 2,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इसकी लम्बी अवधि (150-180 दिन) तथा शुष्क क्षेत्रों में खेती के लिए निरंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है, जिसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण और अकुशल जल प्रबंधन के कारण मीठे पानी की पर्याप्त हानि होती है।
इसके विपरीत, भांग को प्रति किलोग्राम केवल 2,719 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानि कपास के जल शोषण से एक तिहाई से भी कम। कम परिपक्वता अवधि (70-120 दिन), कम छत्र कवरेज और कम पत्ती क्षेत्र सूचकांक के साथ, भांग में कम वाष्पोत्सर्जन दर होता है। इसके अलावा, इसकी गहरी जड़ें उप-मिट्टी की नमी तक पहुंच प्रदान करती हैं, जिससे यह बिना सिंचाई के शुष्क जलवायु में सफलतापूर्वक विकसित हो सकती है। ये विशेषताएं भांग को कपास की तुलना में अधिक जल-कुशल और पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ विकल्प बनाती हैं।
कपास की फसल को सुरक्षा के लिए कीटनाशक की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन भांग खुद ही कीटों और बीमारियों के प्रति प्राकृतिक प्रतिरोध रखता है, जिससे बाहरी रासायनिक हस्तक्षेप की जरूरत काफी हद तक कम हो जाती है। इसकी तेज़ वृद्धि, घनी छतरी, और ऐलोपैथिक गुण खरपतवार की वृद्धि को रोकते हैं और कीटों को रोकते हैं, जिससे यह कम रखरखाव वाली फसल बन जाती है जो कीटनाशकों या शाकनाशियों के बिना पनपती है। इसके अलावा भांग अपनी गहरी जड़ प्रणाली के माध्यम से मिट्टी के स्वास्थ्य में भी सुधार करती है, जो मिट्टी को हवादार बनाती है, एकत्रीकरण को बढ़ाती है, और कटाव को रोकती है। इसके विपरीत, कपास की खेती निरंतर एकल फसल और गहन सिंचाई के माध्यम से मिट्टी की गुणवत्ता को खराब करती है, जिससे पोषक तत्व और कार्बनिक पदार्थ नष्ट हो जाते हैं, जिससे मिट्टी की संरचना को नुकसान पहुंचता है।
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