कश्मीर में मिले हिंदू करकोटा राजवंश के जीवंत प्रमाण
कश्मीर की धरती पर जीवंत हो रही कल्हण की राजतरंगिणी
पवित्र झील के पास से मिली प्राचीन मूर्तियां और शिवलिंग
जम्मू, 04 अगस्त (एजेंसियां)। जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग स्थित सालिया क्षेत्र में करकूट नाग नामक पवित्र झरने के पास करकोटा वंश कालीन प्राचीन मूर्तियां और शिवलिंग मिले हैं। यह ऐतिहासिक खोज कश्मीर के सांस्कृतिक गौरव को दर्शाती है। पुरातात्विक महत्व की इन वस्तुओं का अब वैज्ञानिक परीक्षण होगा और संग्रहालय में संरक्षण होगा। लोक निर्माण विभाग के मरम्मत कार्य के दौरान जमीन से प्राचीन हिंदू मूर्तियां और शिवलिंग मिले। इनमें 11 शिवलिंग, एक देवमूर्ति और कुछ धार्मिक चिन्ह शामिल हैं। ये प्राचीन पुरातात्विक महत्व के अवशेष जल स्रोत के किनारे खुदाई के समय निकले। मजदूर जब इस स्थान की मरम्मत कर रहे थे, तो उन्हें पानी के नीचे एक तरह का गुप्त पत्थर का कक्ष दिखाई दिया। जब इसे खोला गया, तो इन मूर्तियों का पता चला।
जम्मू कश्मीर में काफी पहले से भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा से जुड़े अभिलेखों, पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं और स्थापत्य कला की खोजबीन और शोध की मांग की जा रही है। कश्मीर घाटी में पारंपरिक तीर्थ स्थलों के पुनरुद्धार की मांग भी उठती रही है। इस स्थान की ऐतिहासिकता को देखते हुए जम्मू-कश्मीर के अभिलेखागार, पुरातत्व और संग्रहालय विभाग की टीम ने इस स्थल का निरीक्षण किया है। विभाग के विशेषज्ञ अधिकारियों ने बताया कि इन मूर्तियों को श्रीनगर भेजा जा रहा है, जहां उनकी उम्र और उत्पत्ति का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक परीक्षण किए जाएंगे। इसके लिए सामग्री परीक्षण (मटीरियल अनालिसिस) और तिथि निर्धारण के लिए तकनीकी परीक्षण किए जाएंगे।
इसके बाद इन प्राचीन वस्तुओं को श्रीनगर स्थित एसपीएस संग्रहालय में भेजा जाएगा, जहां शोधार्थी और इतिहासकार इनका गहराई से अध्ययन कर सकेंगे। विभागीय अधिकारियों का मानना है कि ये मूर्तियां 7वीं से 9वीं सदी के बीच की हो सकती हैं, यानि करकोटा वंश के शासनकाल की। स्थानीय लोगों, विशेषकर कश्मीरी पंडित समुदाय का मानना है कि इस स्थान का संबंध करकोटा वंश से है। उनका यह भी कहना है कि इस स्थल पर पहले कोई मंदिर रहा होगा और संभवतः उस मंदिर की मूर्तियों को बाद में सुरक्षित रखने के लिए जल स्रोत में छिपा दिया गया होगा। उनका यह भी अनुरोध है कि इस स्थल को धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में फिर से स्थापित किया जाए। स्थानीय लोगों ने प्रशासन से यह मांग की है कि यहां एक नया मंदिर बनाकर उन मूर्तियों को पुनः स्थापित किया जाए और इसे एक मान्यता प्राप्त तीर्थस्थल का रूप दिया जाए।
करकोटा वंश कश्मीर के इतिहास का गौरवशाली अध्याय है। यह वंश 7वीं सदी के मध्य से 9वीं सदी के उत्तरार्ध तक कश्मीर पर शासन करता रहा। इस काल को अक्सर कश्मीर का स्वर्ण युग कहा जाता है, जब राजनीतिक स्थिरता, सांस्कृतिक समृद्धि और धार्मिक सहिष्णुता अपने शिखर पर थी। करकोटा वंश के संस्थापक दुर्लभवर्धन थे, जिन्होंने 625 ईस्वी के आस-पास कश्मीर की सत्ता संभाली। प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण ने अपनी ऐतिहासिक कृति राजतरंगिणी में करकोटा वंश का विस्तृत वर्णन किया है। कल्हण के अनुसार, दुर्लभवर्धन की प्रतिभा और योग्यता देखकर उस समय के राजा बालादित्य ने उन्हें अपनी पुत्री अंगलेखा से विवाह करा दिया और राजगद्दी सौंप दी थी। दुर्लभवर्धन ने खुद को नागों की संतति घोषित किया और खुद को कर्कोटक नामक पौराणिक नाग राजा का वंशज बताया। इसी वजह से इस वंश का नाम करकोटा पड़ा। नाग परंपरा कश्मीर में बहुत पुरानी रही है और नागों को वहां अत्यंत आदरपूर्वक पूजा जाता रहा है।
कश्मीर की उत्पत्ति से संबंधित नीलमत पुराण यह बताता है कि कश्मीर एक समय एक विशाल झील थी जिसे ऋषि कश्यप ने सुखाया और नागों को बसने के लिए दिया। करकोटा वंश के सबसे प्रसिद्ध सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड़ थे, जिन्होंने 724 से 761 ईस्वी तक शासन किया। ललितादित्य को कश्मीर का सिकंदर भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने न सिर्फ कश्मीर, बल्कि अफगानिस्तान, पंजाब, मध्य एशिया और पूर्वी भारत तक अपना साम्राज्य फैलाया था। उनकी विजय यात्राओं का वर्णन कल्हण ने बहुत ही विस्तार से किया है। उन्होंने केवल सैनिक अभियानों में ही नहीं, बल्कि वास्तुकला और संस्कृति में भी महान योगदान दिया। उनकी राजधानी परिहासपुरा थी, जिसे उन्होंने खुद बसाया था और वह उस समय उत्तर भारत के सबसे समृद्ध और सुंदर नगरों में से एक माना जाता था।
ललितादित्य ने कश्मीर में कई भव्य मंदिरों और धार्मिक स्थलों का निर्माण कराया। उनका सबसे प्रसिद्ध निर्माण मार्तंड सूर्य मंदिर है, जो अनंतनाग के निकट स्थित है। यह मंदिर पत्थरों से बना हुआ है और भारतीय मंदिर वास्तुकला का एक अद्भुत उदाहरण है। यह सूर्य को समर्पित था और इसका निर्माण 8वीं सदी में हुआ था। मंदिर के चारों ओर लगभग 84 छोटे मंदिर बने हुए थे और इसका पूरा परिसर पत्थर की दीवारों से घिरा था। ललितादित्य ने न केवल हिंदू धर्म के लिए, बल्कि बौद्ध धर्म के लिए भी कई मठ बनवाए। उन्होंने मंदिरों में स्वर्ण और रत्नों से सुसज्जित देवमूर्तियां स्थापित करवाईं।
इस काल में कश्मीर में धार्मिक सहिष्णुता थी। हिंदू, बौद्ध और नाग परंपराओं के अनुयायी मिलजुल कर रहते थे। ललितादित्य की शासन प्रणाली भी एक सुचारु प्रशासनिक ढांचे पर आधारित थी और उन्होंने अपने साम्राज्य को अनेक प्रांतों में विभाजित करके शासन किया। चीन के प्रसिद्ध यात्री ह्वेन त्सांग भी इस काल में कश्मीर आए थे और उन्होंने कश्मीर को अत्यंत समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत प्रदेश बताया था। सालिया क्षेत्र से मिली ये मूर्तियां केवल पत्थर की वस्तुएं नहीं हैं, बल्कि एक पूरे सभ्यता और संस्कृति की प्रतीक हैं। ये मूर्तियां करकोटा कालीन स्थापत्य और धार्मिक विश्वासों की झलक देती हैं। जब वैज्ञानिक परीक्षण पूरे होंगे, तो इनसे जुड़ा कालखंड और स्पष्ट रूप से सामने आ सकेगा। यह कश्मीर के इतिहास के उस दौर की पुष्टि करेगा, जिसे अब तक केवल ग्रंथों या मौखिक परंपराओं के माध्यम से जाना गया था। इस खोज का एक और बड़ा पहलू यह है कि यह स्थानीय लोगों के धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव को फिर से सशक्त कर सकता है।
यह जगह कभी एक तीर्थस्थान रहा होगी, इसकी पुष्टि खुद वहां मिले अवशेष कर रहे हैं। ऐसे में, एक मंदिर का पुनर्निर्माण कर इन मूर्तियों को वहीं स्थापित किया जाना न केवल ऐतिहासिक न्याय होगा, बल्कि धार्मिक और सामाजिक सौहार्द के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण कदम होगा। यह भी उम्मीद की जा रही है कि यदि सरकार और पुरातत्व विभाग इस स्थल को संरक्षित करने की दिशा में कार्य करते हैं, तो यह स्थान आने वाले समय में एक प्रमुख पर्यटन स्थल और शोध केंद्र बन सकता है। इससे न केवल स्थानीय रोजगार में वृद्धि होगी, बल्कि कश्मीर की ऐतिहासिक विरासत का भी प्रचार-प्रसार होगा।
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