तुर्की से पेंग बढ़ा रहा एहसान फरामोश बांग्लादेश

 ऑपरेशन सिंदूर से बौखलाया तुर्की ढाका में मुंह मार रहा

तुर्की से पेंग बढ़ा रहा एहसान फरामोश बांग्लादेश

भारत के तीन शत्रुओं का पिछलग्गू बनने को तैयार यूनुस

शुभ-लाभ सरोकार

भारत के विरोधियों के साथ गठजोड़ करकेबांग्लादेश अल्पकालिक लाभ और दीर्घकालिक जोखिम का खतरनाक खेल खेल रहा है। रणनीतिक स्मृति को रणनीतिक विस्मृति से प्रतिस्थापित नहीं किया जाना चाहिए। बांग्लादेश उस ऐतिहासिक यथार्थ से दूर भागने की कोशिश रहा है जब भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उसके उदय को आकार दिया था। 1971 में भारत द्वारा निभाई गई निर्विवाद भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक करोड़ से ज्यादा शरणार्थियों को शरण देनामहत्वपूर्ण सैन्य सहायता प्रदान करना और यहां तक कि बंगाली आबादी की तत्काल जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी पंचवर्षीय योजना को स्थगित करने जैसे योगदान को कोई एहसान-फरामोश और घृणित नस्ल ही भुला सकती है। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार पर बैठी जमात ने अपनी नस्ल दिखा दी है। भारत ने बांग्लादेश के आंतरिक आर्थिक संकट के समय में भोजनआश्रय और चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग किया। जबकि भारत का समर्थन और सहयोग किसी भी लेन-देन का नहीं था। यह नैतिक और मानवीय था।

फिर भीआज उस बलिदान और 1971 की भावना बांग्लादेश की राष्ट्रीय स्मृति से धुंधली होती दिख रही हैक्योंकि वह उन देशों को तेजी से गले लगा रहा है जो कभी उसके निर्माण के खिलाफ थे और अब इस क्षेत्र में भारत के हितों को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही मेंभारत के उप-सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल राहुल आर. सिंह ने भारत-पाकिस्तान के हालिया संघर्षों के बारे में एक चौंकाने वाला खुलासा किया। उन्होंने कहा, ऑपरेशन सिंदूर के समय जब डीजीएमओ स्तर की वार्ता चल रही थीतब चीन भारत के बारे में पाकिस्तान को लाइव जानकारी दे रहा थी। पहले हमारी दो सीमा थी और दो विरोधी थे पाकिस्तान और चीन। लेकिन वास्तव में भारत के चार शत्रुओं का चेहरा उजागर हुआ। पाकिस्तान, चीन के साथ तुर्की और बांग्लादेश। अब भारत की तीन सीमा पर दुश्मन बैठा हुआ है। पाकिस्तान और चीन भारत का सबसे पहला शत्रु है। पाकिस्तान को चीन हर संभव उकसावा और हर संभव मदद दे रहा है। तुर्की ने भी चीन की तरह ही भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ दिया और अब बांग्लादेश उन्हीं तीनों को अपना आका मान कर उसका पिछलग्गू बना हुआ है। जबकि बांग्लादेश को पैदा भारत ने किया है।

चीनपाकिस्तान और तुर्की की तिकड़ी भारत के सामरिक हितों को कमजोर करने के लिए मिलकर काम कर रही है। अब बांग्लादेश भी इन्हीं शैतानी शक्तियों के साथ मिल कर भारत विरोधियों की चौकड़ी बनाने की कोशिश कर रहा है। हाल ही में जुलाई 2025 मेंतुर्की के शीर्ष रक्षा अधिकारी हालुक गोरगुन ने ढाका का दौरा किया और बांग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस और वरिष्ठ सैन्य नेतृत्व के साथ रणनीतिक सहयोग पर गहन चर्चा की। यह एक वर्ष के भीतर इस तरह की दूसरी उच्च-स्तरीय बातचीत थीजिसमें चटगांव और नारायणगंज में संयुक्त रक्षा-औद्योगिक परिसरों की स्थापना पर चर्चा हुई। यह बांग्लादेश द्वारा तुर्की-निर्मित बायरकटार टीबी2 ड्रोनएमकेई हॉवित्जर और रॉकेट प्रणालियों की पिछली खरीद पर आधारित है। वर्ष की शुरुआत में बांग्लादेशी अधिकारियों ने तुर्की के रक्षा प्रतिष्ठानों का भी दौरा किया थाजो तुर्की के साथ रक्षा संबंधों को गहरा करने की बांग्लादेशी महत्वाकांक्षा का साफ संकेत देता है।

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भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने चीन-पाकिस्तान-बांग्लादेश की उभरती रणनीतिक धुरी के बारे में खुलकर चेतावनी दी है। उन्होंने कहाचीनपाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच हितों के एक संभावित समीकरण पर हमें गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इससे भारत की स्थिरता और सुरक्षा गतिशीलता पर प्रभाव पड़ सकता है। भारत के प्रति खुले तौर पर शत्रुतापूर्ण शक्तियों के साथ ढाका का बढ़ता गठबंधन कई गंभीर सवाला उठाता है। बांग्लादेश के नेतृत्व को यह विचार करना चाहिए कि क्या इस तरह के गठबंधन उसके दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करते हैंऔर क्या वे उस विरासत को नष्ट करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं जिसने इस राष्ट्र को अस्तित्व में लाया।

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चिंता की बात यह है कि बांग्लादेश उन देशों के साथ अपनी गहरी होती मित्रता दिखा रहा है जिनकी रणनीतिक स्थिति स्पष्ट रूप से भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण है। भारत के सिलीगुड़ी गलियारे का फायदा उठाने की चीन की रणनीतिक मंशापाकिस्तान का भारत-विरोधी एजेंडे को लगातार आगे बढ़ाना और दक्षिण एशिया में तुर्की की बढ़ती सक्रियता अब जगजाहिर है। अब तो पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश भी भारत में अराजकता फैलाने वाले तत्वों की  घुसपैठ कराने में मददगार हो रहा है।

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बांग्लादेश का वर्तमान नेतृत्व एक अपरिपक्व और वैचारिक रूप से भ्रमित रास्ता अपनाता दिख रहा है। बांग्लादेश का अंतरिम मुखिया मोहम्मद यूनुस व्यावहारिक कूटनीति छोड़कर लोकलुभावन बयानबाजी और अल्पकालिक रणनीतिक हथकंडे अपना रहा है। भारत की बढ़ती आर्थिक क्षमता और भू-राजनीतिक ताकत के कारण उसके साथ जुड़ने में वैश्विक रुचि के बावजूदबांग्लादेश उसी साझेदार को नाराज करके क्षेत्रीय स्तर पर खुद को अलग-थलग करता दिख रहा है जो उसे सबसे ज्यादा दीर्घकालिक लाभ दे सकता है।

बांग्लादेश उस तालिबान सरकार से भी सीख नहीं ले रहा, जिसने यह साफ कहा है कि उनकी जमीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं करने दिया जाएगा। तालिबान के उप-प्रवक्ता हमदुल्ला फितरत ने कहा, अफगानिस्तान की कार्यवाहक सरकार तटस्थता की नीति के लिए प्रतिबद्ध है और भारत समेत किसी भी देश के खिलाफ अफगानिस्तान की जमीन के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देती। इसी तरहश्रीलंका के नवनिर्वाचित मार्क्सवादी राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार-बार आश्वासन दिया है कि वे अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी भी तरह से भारत के हितों के लिए हानिकारक नहीं होने देंगे। उन्होंने भारत की दोस्ती को एक सच्चे दोस्त की ढाल बताया। इसके ठीक उलटढाका की मौजूदा सरकार कूटनीतिक सिद्धांतों की बड़ी निर्लज्जता से अनदेखी कर रही है। जबकि सत्ता परिवर्तन के बाद बांग्लादेश में आर्थिक संकेतकों में कोई सुधार नहीं है। बल्किस्थिति बद से बदतर हो गई है। मालदीव का उदाहरण सामने है। मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू ने शुरुआत में भारत के प्रति टकरावपूर्ण रुख अपनाया। उन्होंने भी भारतीय सैन्य कर्मियों की वापसी की मांग की और चीन एवं तुर्की को प्राथमिकता देनी शुरू कीं। लेकिन उन्हें जल्दी ही भू-राजनीतिक, भू-रणनीतिक और भू-आर्थिक अनिवार्यताएं समझ में आ गईं।  उन्होंने फौरन अपने दृष्टिकोण में बदलाव किया। 2024 के मध्य तक उन्होंने नई दिल्ली के साथ बातचीत कीप्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में भाग लिया और मुद्रा विनिमय व्यवस्था और ऋण रोलओवर के माध्यम से भारतीय वित्तीय सहायता का स्वागत किया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से भारत को एक प्रमुख विकास साझेदार के रूप में स्वीकार किया। बांग्लादेश भी ऐसा ही कर सकता था।

लेकिन बांग्लादेश सरकार के अंतरिम मुखिया और नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस की नोबल समझ का अकाल है। जो व्यक्ति शापला चत्तर में 2013 की कानून प्रवर्तन कार्रवाई को शापला नरसंहार कहकर संबोधित करता हो और चरमपंथी मदरसा-आधारित समूहहिफाजत-ए-इस्लाम के साथ सार्वजनिक रूप से एकजुटता व्यक्त करता हो, उसे नोबल पुरस्कार पाने का पात्र कैसे समझा जाए। शापला चत्तर की घटना मई 2013 में हुई थीजब हिफाजत-ए-इस्लाम ने ढाका के केंद्रीय वाणिज्यिक जिले को घेर लिया था और 13 कट्टरपंथी मांगें रखी थींजिनमें से कई तालिबान और इस्लामिक स्टेट की मूल विचारधाराओं से मिलती-जुलती थीं।

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