धर्मांतरण कानून के कुछ हिस्से पर सुप्रीम कोर्ट राजी नहीं
लखनऊ/नई दिल्ली, 18 अक्टूबर (एजेंसियां)। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम-2021 के कई प्रावधानों की वैधता पर सवाल उठाए हैं। अदालत ने कहा कि निजता, आनुपातिकता और संवैधानिकता की कसौटी पर इस कानून के कुछ हिस्से खरे नहीं उतरते। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने शुक्रवार को शीर्ष अदालत ने सैम हिगिनबॉटम कृषि, प्रौद्योगिकी और विज्ञान विश्वविद्यालय (शुआट्स) के कुलपति और निदेशक के खिलाफ धर्मांतरण के मामले को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की।
पीठ ने कहा, धर्मांतरण से पहले और बाद में घोषणाओं की वैधानिक प्रक्रिया अत्यंत जटिल और बोझिल है, जिसमें राज्य की अत्यधिक दखलअंदाजी दिखाई देती है। यह विषय मूल रूप से व्यक्ति की आस्था और निजता से जुड़ा है और इसमें सरकारी हस्तक्षेप संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर सकता है। हालांकि पीठ ने स्पष्ट किया कि वह वर्तमान मामले में अधिनियम की संवैधानिक वैधता पर औपचारिक रूप से निर्णय नहीं दे रही है। उसने कहा कि एक आपराधिक मामले पर निर्णय लेते समय इन मुद्दों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
पीठ ने कहा, धर्मांतरण के मामलों में अनिवार्य राज्य जांच और सार्वजनिक प्रकटीकरण की प्रक्रिया, अपने धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म को अपनाने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति के लिए एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया सामने रखती है। पीठ ने चेतावनी दी कि अजनबियों को मुकदमा चलाने की अनुमति देने से आपराधिक कानून उत्पीड़न का एक साधन बन जाएगा, जिससे तुच्छ या प्रेरित मुकदमेबाजी का रास्ता खुल जाएगा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी कमजोर हो जाएगी।
पीठ ने विशेष रूप से कानून की धारा 8 और 9 पर चिंता व्यक्त की, जो क्रमशः धर्मांतरण से पहले और बाद की वैधानिक आवश्यकता और प्रक्रिया से संबंधित हैं। पीठ ने कहा, व्यक्तिगत विवरण सार्वजनिक करने की वैधानिक आवश्यकता और प्रत्येक मामले में पुलिस जांच का आदेश देने के लिए जिला मजिस्ट्रेटों को वैधानिक दायित्व सौंपा गया है। मगर यह सुनिश्चित करने के लिए गहन जांच की आवश्यकता हो सकती है कि क्या यह संविधान में दी गई गोपनीयता की व्यवस्था के अनुरूप है।
न्यायालय ने याद दिलाया कि संविधान की प्रस्तावना और उसमें निहित धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्धताएं, विचार, अभिव्यक्
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