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पटाखों की चमक बुझी मासूमियत की रोशनी
— रामनगर में खेल-खेल में हुआ दर्द का धमाका
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रामनगर, 02 नवम्बर (एजेंसियां)। दीपावली का त्योहार अभी दूर था, लेकिन खुशियों की आहट पहले ही गांव के छोटे बच्चों तक पहुँच गई थी। कानियां गांव की गलियों में चार मासूम खेल रहे थे — हाथों में अधजले पटाखों की बची-खुची चिंगारियाँ, आंखों में जिज्ञासा और चेहरों पर मासूम मुस्कान। किसी ने नहीं सोचा था कि खेल का यह पल एक ऐसी त्रासदी में बदल जाएगा, जो पूरे गांव को सन्न कर देगा।
रविवार की शाम थी। आसमान हल्का सुनहरा हो चला था। चारों बच्चे बाजार से बचे हुए पटाखों का मसाला इकट्ठा कर लाए थे। बारूद के उस चूर्ण को वे बोतल में भर रहे थे, मानो कोई खिलौना बना रहे हों। हँसी-ठिठोली के बीच किसी ने माचिस की तीली जलाई — और अगले ही पल सब कुछ धुएँ में बदल गया। एक कानफोड़ू धमाके ने मासूमियत को चीर दिया।
धमाका इतना तेज था कि पास खड़ा 9 वर्षीय मोहन रौतेला वहीं गिर पड़ा। उसकी चीख ने पूरे गांव को हिला दिया। जब लोग दौड़कर पहुँचे तो देखा — मोहन का एक हाथ कलाई से नीचे पूरी तरह उड़ चुका था। खून से लथपथ ज़मीन पर पड़ी वह मासूम देह किसी भयावह दृश्य से कम नहीं थी। उसके साथी मनीष सैनी और भानु सैनी भी ज़ख्मी थे, आँखों में डर और होठों पर सिसकियाँ।
गांव के लोग तुरंत बच्चों को रामदत्त संयुक्त चिकित्सालय लेकर पहुँचे। डॉक्टरों ने हालत गंभीर देख मोहन को हायर सेंटर रेफर कर दिया। उसकी मां बार-बार यही कहती रही — “मोहन तो बस खेल रहा था… उसे क्या पता था कि पटाखे खिलौना नहीं होते।” पिता नंदन सिंह रौतेला के चेहरे पर दर्द और बेबसी की रेखाएँ साफ झलक रही थीं। घर के बाहर सन्नाटा पसरा है, बस सिसकियों की गूंज बाकी है।
घटना के बाद पूरा गांव स्तब्ध है। जहां कल तक बच्चे पटाखों के शोर से खुशियाँ बाँटते थे, वहीं आज हर आँगन में डर का साया है। कोई भी उस जगह के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा, जहां बारूद ने खेल को मौत में बदल दिया।
पुलिस और प्रशासन मौके पर पहुँचे हैं, जांच शुरू हो चुकी है, लेकिन जवाब अब भी अधूरा है — उन पटाखों का मसाला आखिर बच्चों तक पहुँचा कैसे? डॉक्टरों ने चेताया है कि पटाखों या बारूद के अवशेषों से खेलना किसी भी बच्चे के लिए जानलेवा हो सकता है।
गांव के बुजुर्गों की आँखें नम हैं। वे कहते हैं, “हमने तो कभी नहीं सोचा था कि त्योहार की चमक एक मासूम का उजाला छीन लेगी।” मोहन के स्कूल के साथी उसकी कुर्सी को खाली देखकर रो पड़े। पटाखों की चमक अब गांव में नहीं है, सिर्फ एक अधूरी मासूम हँसी की गूंज रह गई है — जो हर माँ-बाप को चेतावनी देती है कि बच्चों के हाथों में पटाखे नहीं, सिर्फ सपने होने चाहिए।
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