सख्त परीक्षा पास करने पर ही बन सकेंगे जज
न्यायिक प्रणाली में बड़े बदलाव की तैयारी में मोदी सरकार!
फिर उठा सवाल, क्यों रद्द किया था एनजेएसी कानून?
शुभ-लाभ सरोकार
मोदी सरकार भारतीय न्यायिक प्रणाली में बड़े सकारात्मक बदलाव की तैयारी कर रही है। एक सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के 75वें स्थापना दिवस समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस बदलाव का संकेत देते हुए कहा था कि न्यायपालिका में सुधार की प्रक्रिया को तेज किया जाना चाहिए। स्थापना दिवस समारोह एक सटीक मंच था, जहां से यह संदेश देना उचित था। समारोह में देशभर की जिला अदालतों से आए लगभग 800 जज मौजूद थे। राष्ट्रपति ने कहा था, लोगों को लगता है कि न्यायपालिका में संवेदनशीलता नहीं है। लोगों की इस भावना को देखते हुए न्यायपालिका को आवश्यक बदलाव के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
यह पहली बार नहीं था जब राष्ट्रपति मुर्मू ने न्यायिक प्रणाली में सुधार की आवश्यकता के साथ-साथ जजों की नियुक्ति प्रणाली पर सवाल उठाए। कॉलेजियम का नाम लिए बिना उन्होंने बार-बार सुझाव दिया है कि जजों की नियुक्ति भी उसी तरह होनी चाहिए, जैसे आईएएस अधिकारियों की होती है। राष्ट्रपति के सुझाव की थोड़ी पृष्ठभूमि देखें तो सामने आता है 1958 में भारत के लॉ कमीशन की 14वीं रिपोर्ट के जरिए रखा गया ऑल इंडिया ज्यूडिशियल सर्विस (एआईजेएस) बनाने का प्रस्ताव। इसके बाद 1978 की 77वीं रिपोर्ट, फिर 1986 की 116वीं रिपोर्ट और हाल ही में 2022 में भी यह सुझाव दोहराया गया। 1958 से आज तक छह दशकों से अधिक समय बीत गया लेकिन इस दिशा में एक भी ठोस कदम नहीं उठाया गया। वजह स्पष्ट है। हर बार खुद जजों ने ही इसका विरोध किया। हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों ने लगातार कहा कि इससे हमारे अधिकार क्षेत्र में दखल होगा।
यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन (यूपीएससी) के द्वारा होने वाली सिविल सर्विस एग्जाम (सीएसई) के माध्यम से सरकार की 64 शीर्ष सेवाओं में नियुक्तियां होती हैं। इनमें आईएएस, आईएफएस, आईपीएस सबसे ऊपर हैं। इन्हीं परीक्षाओं से आईआरएस, डिफेंस अकाउंट, रेलवे, डाक विभाग और कई अन्य विभागों के उच्च अधिकारी चुने जाते हैं। कानून के क्षेत्र के लिए इंडियन सिविल लॉ सर्विस (आईसीएलएस) और इंडियन लॉ सर्विस (आईएलएस) जैसी सेवाएं हैं, लेकिन इनमें से कोई भी जजों का चयन नहीं करती। जरूरी है कि जजों की नियुक्ति भी आईएएस जैसी सख्त परीक्षा और गहन प्रशिक्षण से हो। और यह केवल हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के लिए नहीं बल्कि फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट, सिटी सिविल कोर्ट और सेशन्स कोर्ट के लिए हो। आखिरकार, इन्हीं स्तरों से आगे चलकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज बनते हैं।
कॉलेजियम प्रणाली के चलते उच्च न्यायालयों में जजों की कुर्सियां कुछ चुनिंदा परिवारों के सदस्यों के लिए आरक्षित हो गई हैं। नजदीकी रिश्तेदार न हों तो जज साहब अपने दोस्तों या खास लोगों के बच्चों को प्राथमिकता देते हैं। इसी भाई-भतीजावाद और भ्रष्ट व्यवस्था को खत्म करने के लिए नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) बना। मोदी सरकार ने 2014 में संसद के दोनों सदनों में 99वां संवैधानिक संशोधन पास कराया, एनजेएसी अधिनियम बना और 16 राज्यों ने भी इसे मंजूरी दे दी। 31 दिसंबर 2014 को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हस्ताक्षर कर दिए। 13 अप्रैल 2015 को यह कानून लागू हो गया। लेकिन 16 अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से इस कानून को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक करार दिया और कॉलेजियम प्रणाली बहाल कर दी।
यह वैसा ही था जैसे जंगल के दरबार में शेर से पूछा जाए कि क्या वह ऐसा कानून मंजूर करेगा जिसमें शेरों को मनमाने शिकार से रोका जाए और हर शिकार का हिसाब देना पड़े। शेर का जवाब क्या होगा? ठीक वही अपेक्षित जवाब सुप्रीम कोर्ट ने भी दिया और कानून रद्द कर दिया। कॉलेजियम प्रणाली ही न्यायपालिका के शेरों का पेट भरती है। एनजेएसी लागू होता तो शेर मनमाना शिकार नहीं कर पाते।
जाने-माने अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अहम सदस्य संजीव सान्याल ने तीन महत्वपूर्ण बातें कही हैं। सान्याल ने कहा, मुझे डर है कि न्यायिक प्रणाली और कानूनी इको-सिस्टम, खासतौर से न्यायिक प्रणाली आज भारत को विकसित भारत बनाने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक यहां भारी परिवर्तन नहीं होता, सबसे मजबूत आर्थिक नीतियां भी बेकार साबित होंगी। सान्याल ने यह भी पूछा, जजों को माई लॉर्ड क्यों कहा जाए? आखिर वे भी हमारे जैसे नागरिक हैं, सामंती शासक नहीं। आज भले ही सर या योर ऑनर स्वीकार्य हैं, लेकिन ज्यादातर वकील अब भी माई लॉर्ड कहकर ही जजों को संबोधित करते हैं और जज उन्हें मना भी नहीं करते, बल्कि प्रसन्न होते हैं। संजीव सान्याल ने अदालतों की लंबी छुट्टियों पर भी सवाल उठाया। इन लंबी छुट्टियों के दौरान अदालतों का पूरा कामकाज ठप्प हो जाता है। पुलिस, सरकारी अस्पताल या नौकरशाही में भी छुट्टियां होती हैं, लेकिन वहां काम कभी बंद नहीं होता। अदालतों को ही क्यों वेकेशन बेंच की जरूरत पड़े?
उल्लेखनीय है कि संजीव सान्याल महान क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल के पोते हैं। शचींद्रनाथ सान्याल के शिष्य राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे वीर रहे हैं जिन्होने काकोरी एक्शन में राम प्रसाद बिस्मिल का साथ दिया था और अंग्रेजों ने उन्हें फांसी दे दी थी। संजीव सान्याल प्रधानमंत्री के भरोसेमंद व्यक्ति हैं।
बहरहाल, परंपरा रही है कि राष्ट्रपति के सार्वजनिक बयान अक्सर प्रधानमंत्री की मूक सहमति से ही होते हैं। इसलिए इन दोनों दिग्गजों की बातें साफ इशारा करती हैं कि मोदी सरकार न्याय प्रणाली में कुछ बड़े परिवर्तन की तैयारी कर रही है। आने वाले महीनों में जज साहबान को मुजरिम के कटघरे में खड़ा कर जवाब मांगा जाएगा और कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और प्रशांत भूषण जैसे वकीलों द्वारा खड़ी की गई लीगल इको-सिस्टम को भी तोड़ा जाएगा। आवश्यक सुधारों के साथ-साथ न्यायालयों की रिपोर्टिंग प्रणाली में भी बदलाव जरूरी है। अभी लाइव-लॉ और बार एंड बेंच सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कवर करते हैं, लेकिन ये भी उसी इको-सिस्टम का हिस्सा हैं। जरूरत है एक तीसरे, मजबूत और राष्ट्रवादी लीगल डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म की, जो बेबाकी से इस किले में प्रवेश कर सके और न्यायपालिका को खोखला कर रहे दीमकों का पेस्ट कंट्रोल कर सके।
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