जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाएड..!

देश की अदालतों में लंबित पड़े हैं पांच करोड़ से अधिक मामले

जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाएड..!

सुप्रीम कोर्ट में एक लाख, इलाहाबाद हाईकोर्ट में 10 लाख मुकदमे लंबित

बच्चे भी न्याय से वंचित, एक साल में एक लाख मामलेहजारों लंबित

शुभ-लाभ सरोकार

छोटे-मोटे बेमानी मुद्दों पर भी न्यायिक सक्रियता दिखाने वाले सुप्रीम कोर्ट में करीब एक लाख मुकदमे लंबित हैं। लंबित मुकदमों की संख्या हर महीने तकरीबन एक हजार केस की गति से बढ़ती जा रही है। जब सुप्रीम कोर्ट की यह हालत है तो पूरे देश की अदालतों में लंबित मामलों की संख्या के बारे में कल्पना की जा सकती है। कल्पना छोड़िए, बिल्कुल तथ्यों में बात करते हैं। देश की अदालतों में पांच करोड़ मामले लंबित हैं। देश के उच्च न्यायालयों में ही करीब एक करोड़ मामले लंबित पड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट भी कई बार इस पर चिंता जता चुका है।

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (एनजेडीजीने निचली अदालतों में लंबित पांच करोड़ मामलों में से 1.78 करोड़ मुकदमों के कारण भी बताए हैं। इनमें से ज्यादातर आपराधिक मामले हैं। इनमें 81 प्रतिशत आपराधिक मामले हैं। बाकी 19 प्रतिशत सिविल मामले हैं। इससे पता चलता है कि आपराधिक मामलों में देरी ज्यादा हो रही है। लगभग 3 करोड़ मामलों के लंबित होने का तो कोई कारण भी नहीं है। बस यूं ही लंबित पड़ा है। इन पर न्यायिक प्रक्रिया का कोई ध्यान नहीं है। एनजेडीजी कहता है कि सबसे बड़ा कारण वकीलों का उपलब्ध न होना है। 62 लाख से ज्यादा मामलों में वकील मौजूद नहीं होते। इससे सुनवाई आगे नहीं बढ़ पाती। दूसरा बड़ा कारण आरोपी का फरार होना है। 35 लाख से ज्यादा मामलों में आरोपी फरार हैं। जब आरोपी ही नहीं होतातो केस कैसे चले। लगभग 27 लाख मामलों में गवाह गायब हैं। गवाहों के बिना सबूत पेश करना मुश्किल बताया जाता है। 23 लाख से ज्यादा मामलों पर अलग-अलग अदालतों ने रोक लगा रखी है। यह रोक भी मामलों को आगे बढ़ने से रोकती है। 14 लाख से ज्यादा मामलों में दस्तावेजों का इंतजार है। लगभग 8 लाख मामलों में पार्टियों का दिलचस्पी न लेना बताया गया है।

भारत के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित उच्च न्यायालयों में से एकइलाहाबाद उच्च न्यायालयजिसने कभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और भविष्य के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों जैसी हस्तियों को सम्मानित किया थाउसकी तो और भी बुरी दशा है। 10 लाख से ज्यादा लंबित मामलों के साथइलाहाबाद हाईकोर्ट देश की सबसे ज्यादा बोझ से दबी अदालतों में से एक है। आपराधिक मुकदमों से लेकर सम्पत्ति और पारिवारिक विवादों तक के मामले दशकों से यहां लंबित हैंजिससे भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यउत्तर प्रदेश के हजारों लोग कानूनी पचड़ों में फंसे हुए हैं। सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी 73 वर्षीय बाबू राम राजपूत तीन दशकों से भी ज्यादा समय से सम्पत्ति विवाद से जूझ रहे हैं। उन्होंने 1992 में एक नीलामी में जमीन खरीदी थीलेकिन पिछले मालिक ने बिक्री को चुनौती दे दी थी। और यह मामला आज तक अनसुलझा है। राजपूत कहते हैंमुझे बस यही उम्मीद है कि मेरे मामले का फैसला मेरे जीते जी हो जाए।

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उच्च न्यायालय का संघर्ष भारतीय न्यायपालिका के एक व्यापक संकट को दर्शाता है। न्यायाधीशों की कमी और मुकदमों के लगातार बढ़ते बोझ के कारण मुकदमों में भारी विलंब हो रही है। 160 स्वीकृत पद हैं जो कभी भी पूरी तरह भरे नहीं जाते। न्यायालय में कर्मचारियों की भारी कमी है। पुलिस जांच में देरीबार-बार स्थगन और खराब बुनियादी ढांचे के कारण लंबित मामलों की संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। प्रत्येक न्यायाधीश को प्रतिदिन सैकड़ों मामलों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो 1,000 से भी ज्यादा। केवल पांच घंटे काम करने परयानि प्रति मामले एक मिनट से भी कम समय। व्यवहारिक तौर पर देखें तो कई मामलों की सुनवाई ही नहीं होती।

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वकीलों का कहना है कि जमानत याचिका या बेदखली स्थगन जैसे जरूरी मामलों की सुनवाई पहले की जाती हैजिससे पुराने मामले सूची में नीचे खिसक जाते हैं। वरिष्ठ वकील कहते हैं कि अदालतें अक्सर जरूरी मामलों में अंतरिम या अस्थायी आदेश जारी करती हैं। लेकिन एक बार तत्काल जरूरत पूरी हो जाने के बादनए मामलों के ढेर लग जाने से मामला लटक जाता है। सेवानिवृत्त न्यायाधीश अमर सरन कहते हैं कि बढ़ते लंबित मामलों ने न्यायाधीशों को सरल दृष्टिकोण अपनाने पर मजबूर कर दिया है।

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अभी हाल ही, अदालत को 40 साल से ज्यादा समय से लंबित एक बलात्कार और हत्या के मामले में फैसला सुनाते समय अपनी देरी की गंभीरता का सामना करना पड़ा। फैसला सुनाए जाने तकपांच दोषियों में से चार की मृत्यु हो चुकी थी। एकमात्र जीवित बचे दोषी को आत्मसमर्पण करने का आदेश देते हुएअदालत ने स्वीकार किया कि उसे पहले फैसला न सुना पाने का पछतावा है। लंबित मामलों के कारण कानूनी कार्रवाई भी हुई है। इस साल की शुरुआत मेंइलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकीलों के एक समूह ने और अधिक न्यायिक नियुक्तियों की मांग करते हुए कहा था कि न्यायाधीशों की कमी के कारण अदालत पंगु हो गई हैजिसके कारण मामले सालों तक लटके रहते हैं।

इस संकट ने भारत की सर्वोच्च अदालत का ध्यान खींचा है। जनवरी मेंसर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मामलों की सूची के अप्रत्याशित होने को चिंताजनक बताया था और कहा था कि व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। अनिश्चित सुनवाई की तारीखें लोगों कोखासकर विशाल उत्तर प्रदेश मेंबहुत प्रभावित करती हैं। कई लोग अपनी सुनवाई के लिए बस कुछ ही दिनों की सूचना पर सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा करके प्रयागराज पहुंचते हैंजहां अदालत स्थित है।

बाबू राम राजपूत कानपुर के रहने वाले हैंजो प्रयागराज से 200 किलोमीटर (125 मील) दूर है। हर बार जब उनका मामला सूचीबद्ध होता हैतो उन्हें लगभग चार घंटे का सफर तय करना पड़ता है। फिर भी उन्हें कभी यकीन नहीं होता कि उनकी सुनवाई होगी भी या नहीं। वे कहते हैंमेरी उम्र 70 से ज्यादा है। मुझे अक्सर कुछ दिन पहले ही पता चलता है कि मेरा मामला सूचीबद्ध हैजिससे सफर करना मुश्किल हो जाता है। वे कहते हैं कि कई बार उनके मामले की सुनवाई नहीं हो पाती क्योंकि दूसरे मामले पूरा दिन ले लेते हैं।

वकील लंबे समय से अदालत से राज्य के पश्चिमी हिस्से में एक और पीठ स्थापित करने का आग्रह कर रहे हैं। पहुंच आसान बनाने और सुनवाई में तेजी लाने के लिए किसी दूसरे शहर खास तौर पर मेरठ या गाजियाबाद में उच्च न्यायालय की एक और शाखा जरूरी है। वर्तमान मेंलखनऊ शहर में एक अतिरिक्त पीठ मौजूद है। 1985 में एक सरकारी आयोग ने भी इसी तरह की सिफ़ारिश की थीलेकिन उसे अभी तक लागू नहीं किया गया है।

इस साल की शुरुआत मेंराज्य सरकार ने उच्च न्यायालय से एक और पीठ स्थापित करने का आग्रह किया थालेकिन बाद में अज्ञात कारणों से पत्र वापस ले लिया गया। अधिक पीठों की मांग केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। 2009 की विधि आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सभी राज्यों को अतिरिक्त उच्च न्यायालय शाखाओं से लाभ होगा। हालांकि नई पीठें दीर्घकालिक रूप से मददगार हो सकती हैंलेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति जैसे त्वरित समाधान की आवश्यकता है।

लेकिन यह प्रक्रिया धीमी और जटिल है। उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश पहले उम्मीदवारों की सूची बनाते हैंफिर राज्य और संघीय सरकारेंऔर भारत के मुख्य न्यायाधीशउस सूची की समीक्षा करते हैं। इसके बादसर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश नियुक्ति के लिए अंतिम सूची संघीय सरकार को भेजते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि सही उम्मीदवारों का चयन अक्सर चुनौतीपूर्ण होता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर का कहना है कि अक्सर राज्य के बाहर से नियुक्त मुख्य न्यायाधीश स्थानीय वकीलों या न्यायाधीशों को नहीं जानते होंगेजिससे सिफारिशें जटिल हो जाती हैं। नामों को किसी भी स्तर पर अस्वीकार किया जा सकता है और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उन्हें सरकार को भेजे जाने तक गोपनीय रखा जा सकता है।

पिछले सालसुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के लिए केवल एक नियुक्ति की सिफारिश की थीजबकि लगभग आधी सीटें खाली थीं। इस साल 40 नए न्यायाधीशों की नियुक्ति के बाद कुछ प्रगति हुई, जिनमें से 24 की नियुक्ति पिछले हफ़्ते हुई। लेकिन लंबित मामलों की संख्या अभी भी बनी हुई है। विशेषज्ञों का कहना है कि लंबित मामलों की संख्या इतनी ज्यादा है कि पूरी क्षमता होने पर भीप्रत्येक न्यायाधीश 7,000 से ज्यादा लंबित मामलों को संभालेगा।

अप्रैल से दिसंबर 2023 के बीच राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को बच्चों से जुड़े अपराधों की करीब एक लाख शिकायतें मिलीं। इनमें सबसे अधिक 39,500 शिकायतें उपेक्षितदिव्यांग और हाशिए पर पड़े बच्चों की देखभाल से जुड़ी थीं। बाल श्रम और संकटग्रस्त बच्चों से जुड़े लगभग 20 हजार मामलों में से 19,645 अब भी लंबित हैं। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर)  को पिछले साल अप्रैल से दिसंबर के बीच बाल अपराधों से जुड़ीं लगभग एक लाख शिकायतें मिलीं। इसमें सर्वाधिक 39,500 मामले किशोर न्याय और उपेक्षितहाशिए पर पड़े या दिव्यांग बच्चों की देखभाल से संबंधित थीं। वहींबाल श्रम और संकटग्रस्त बच्चों से संबंधित शिकायतों की कुल संख्या लगभग 20 हजार थी। इसमें से 2024 के अंत तक 19,645 मामले लंबित थे।

महिला और बाल विकास मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिकएनसीपीसीआर ने अपर्याप्त पुनर्वास सेवाएंबाल देखभाल संस्थानों की खराब स्थिति और दिव्यांग बच्चों के लिए सीमित सहायता जैसे मुद्दे सबसे अधिक रिपोर्ट किए। शिकायतों की सबसे बड़ी श्रेणी किशोर न्याय और उपेक्षितदिव्यांग बच्चों की देखभाल से संबंधित थी। इसमें 39,500 से अधिक केस दर्ज किए गए। इनमें से 18,954 का 2024 के अंत तक समाधान कर दिया गया।

रिपोर्ट के मुताबिकबाल स्वास्थ्यदेखभाल और विकास की श्रेणी में 18,500 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। शिक्षा संबंधी शिकायतों के 8,200 से अधिक मामले थे। वहीं पॉक्सो अधिनियम के तहत 6,800 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं। इसमें यौन शोषणशोषण और बाल संरक्षण कानूनों के उल्लंघन के मामले शामिल थे। इसके अलावाबाल तस्करी की 46 शिकायतें मिलीं।

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