“तथ्य से अधिक पूर्वाग्रह: एस.आई.आर. पर योगेन्द्र यादव का एकतरफा विमर्श”
योगेन्द्र यादव का लेख “एस.आई.आर.: अब शातिर तिकड़म में बदला तुगलकी फरमान” वस्तुतः चुनाव आयोग के Special Intensive Revision (SIR) अभियान के विरुद्ध एक राजनीतिक दृष्टिकोण से लिखा गया आलेख है। यह लेख तथ्यों के आधार पर विश्लेषण कम और वैचारिक आरोप अधिक प्रतीत होता है।
लेखक ने शुरू से ही एस.आई.आर. को “शातिर तिकड़म” और “तुगलकी फरमान” बताकर इसकी नियत पर प्रश्न उठाया, परन्तु इस दावे के समर्थन में कोई ठोस प्रमाण या आंकड़ा प्रस्तुत नहीं किया। चुनाव आयोग द्वारा इस प्रक्रिया के लिए जो दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं, उनमें मतदाता सूची के शुद्धिकरण और डुप्लीकेट एंट्री हटाने को प्राथमिकता बताया गया है। यह दावा कि “एस.आई.आर. मतदाता सूची से चुन-चुनकर लोगों को हटाने की प्रक्रिया है” पूर्णतः अनुमान पर आधारित है और इसमें किसी राज्य या क्षेत्र के वास्तविक डेटा का उल्लेख नहीं मिलता।
लेखक ने इसे “अघोषित एनआरसी” करार दिया है, जबकि चुनाव आयोग ने स्वयं यह स्पष्ट किया है कि यह केवल मतदाता सूची का तकनीकी पुनरीक्षण है, नागरिकता का सत्यापन नहीं। इस तथ्य की अनदेखी लेख में बार-बार की गई है। इससे प्रतीत होता है कि लेखक ने इस योजना को राजनीतिक भय या वामपंथी विमर्श की दृष्टि से प्रस्तुत किया है, न कि वस्तुनिष्ठ तथ्यों के आधार पर।
लेख में यह भी कहा गया है कि आयोग का इरादा “कुछ खास तरह के वोटरों का सफाया करने का है।” यह कथन न केवल आधारहीन है, बल्कि चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक निकाय की निष्पक्षता पर अनुचित संदेह भी उत्पन्न करता है। यदि लेखक के पास ऐसे किसी भेदभावपूर्ण आदेश का प्रमाण होता, तो उसका उल्लेख करना चाहिए था। केवल अनुमान या राजनीतिक आक्रोश के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकालना लेखन की विश्वसनीयता को कमजोर करता है।
इसी प्रकार लेखक का यह कहना कि “बिहार में लाखों वोटर बाहर किए गए और आयोग ने चिंता नहीं जताई” भी एक अपूर्ण तथ्य है। चुनाव आयोग के प्रेस नोट्स और सुप्रीम कोर्ट में दायर प्रतिवेदनों के अनुसार, बिहार में हटाए गए नामों में अधिकांश मृतक या स्थानांतरित मतदाताओं के थे। इस तथ्य को लेख में पूरी तरह छिपा दिया गया है, जिससे पाठक को एकतरफा धारणा बनती है।
लेख में 2002–04 की मतदाता सूची को “मनमाना कट-ऑफ” कहा गया है, जबकि यह कट-ऑफ तिथि राष्ट्रीय मतदाता पंजीकरण अधिनियम, 1950 और Representation of the People Act के तहत तकनीकी कारणों से निर्धारित की गई थी। इसे जानबूझकर “नागरिकता जांच” से जोड़ना एक भ्रामक प्रस्तुति है।
इसके अलावा, लेखक ने बार-बार “चुनिंदा समुदायों” का जिक्र किया, परंतु किसी समुदाय या क्षेत्र का नाम नहीं लिया। इस प्रकार की संकेतात्मक भाषा राजनीतिक विभाजन को बढ़ावा देती है। वस्तुतः यह लेख नीतिगत समीक्षा के बजाय राजनीतिक विमर्श का हथियार बन जाता है।
लेखक का यह तर्क कि “आधार को नागरिकता का प्रमाण न मानना चुनाव आयोग का बहाना है” भी गलत व्याख्या है। सुप्रीम कोर्ट के 2018 के फैसले (Justice K.S. Puttaswamy v. Union of India) में स्पष्ट किया गया है कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं, बल्कि पहचान का साधन है। इस निर्णय के बाद आयोग का रुख कानूनसम्मत है, न कि मनमाना जैसा लेखक ने दिखाया।
समग्रतः यह लेख पूर्वाग्रहपूर्ण, राजनीतिक रूप से प्रेरित और तथ्यों से परे निष्कर्षों पर आधारित है। इसमें न तो आयोग की प्रक्रिया के तकनीकी पक्षों का संतुलित विश्लेषण है और न ही मतदाता सूची सुधार की वास्तविक आवश्यकता को समझने का प्रयास।
लेख का लहजा अभियानात्मक (campaign-oriented) है — ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक का उद्देश्य जनता में असंतोष या भय का माहौल बनाना है।
लेख की भाषा, जैसे “शातिर तिकड़म”, “तुगलकी फरमान”, “मनमानी प्रक्रिया” आदि, विचारधारा आधारित अतिशयोक्ति दर्शाती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि लेखक वामपंथी विचारधारा से बंधा हुआ है, जहां शासन-संस्थाओं के प्रति अविश्वास और व्यवस्था-विरोध एक स्थायी दृष्टिकोण के रूप में झलकता है।

