नई दिल्ली, 13 दिसम्बर,(एजेंसियां)। भारतीय समाज, कानून और राजनीति में शायद ही कोई मुद्दा जाति और आरक्षण जितना संवेदनशील रहा हो। दशकों नहीं, बल्कि सदियों से यह एक लगभग अटल नियम माना जाता रहा है कि बच्चे की जाति पिता से तय होती है। स्कूल के दाखिले से लेकर नौकरी, छात्रवृत्ति और आरक्षण तक—हर जगह पिता की जाति ही निर्णायक मानी जाती रही। लेकिन अब देश की सर्वोच्च अदालत ने इस परंपरा की नींव को एक फैसले से हिला दिया है।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (CJI) सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने एक ऐसे निर्णय पर मुहर लगाई है, जिसे केवल एक केस का नतीजा नहीं कहा जा सकता। यह फैसला पहचान, वंश, जाति और संविधान की आत्मा—चारों पर सीधा प्रहार करता है। अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि अगर परिस्थितियां इसकी मांग करें, तो मां की अनुसूचित जाति के आधार पर भी बच्चे को SC सर्टिफिकेट दिया जा सकता है, भले ही पिता नॉन-एससी हो।
यह फैसला अपने आप में इसलिए भी ऐतिहासिक है, क्योंकि यह उस पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच को चुनौती देता है, जिसमें मां की पहचान को कानूनी तौर पर हमेशा दूसरे दर्जे पर रखा गया।
यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह न केवल जाति प्रमाणपत्र की प्रक्रिया को प्रभावित करेगा, बल्कि पहचान, समानता और महिला की सामाजिक भूमिका पर भी गहरी छाप छोड़ेगा।
पिता की जाति को अंतिम सत्य मानने वाली सदियों पुरानी दीवार में अब दरार पड़ चुकी है। आने वाले वर्षों में यह दरार दीवार बनेगी या टूटेगी—यह समाज, राजनीति और प्रशासन तय करेगा।
लेकिन इतना तय है कि Yes Milord—इस एक फैसले ने भारत की जाति-व्यवस्था पर नई बहस की नींव रख दी है।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला पुडुचेरी की एक नाबालिग बच्ची से जुड़ा है। बच्ची की मां अनुसूचित जाति से संबंधित हैं, जबकि पिता नॉन-एससी हैं। बच्ची की परवरिश, सामाजिक परिवेश, शिक्षा और रहन-सहन पूरी तरह मां और मां के समुदाय के बीच हुआ। ऐसे में बच्ची की ओर से अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र की मांग की गई।
मद्रास हाईकोर्ट ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए आदेश दिया कि बच्ची को मां की जाति के आधार पर SC सर्टिफिकेट दिया जाए। राज्य सरकार इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ—जिसमें CJI सूर्यकांत और जस्टिस जॉय माला बागची शामिल थे—ने हाईकोर्ट के फैसले में दखल देने से इनकार कर दिया।
CJI सूर्यकांत की टिप्पणी जिसने बहस छेड़ दी
सुनवाई के दौरान CJI सूर्यकांत की एक टिप्पणी ने इस फैसले को ऐतिहासिक बना दिया। उन्होंने कहा—
“समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं। अगर बच्चा सामाजिक रूप से मां के समुदाय में पला-बढ़ा है, तो केवल पिता की जाति के आधार पर उसकी पहचान तय करना क्यों जरूरी हो?”
उन्होंने यह भी साफ किया कि अगर बच्ची को समय पर जाति प्रमाणपत्र नहीं दिया गया, तो उसका शैक्षणिक और सामाजिक भविष्य गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है।
यहीं से यह फैसला एक सामान्य कानूनी आदेश से निकलकर सिस्टम-चेंजिंग जजमेंट बन गया।
सदियों पुरानी परंपरा कैसे टूटी?
भारतीय समाज में जाति केवल जन्म से नहीं, बल्कि पितृवंशीय पहचान से जुड़ी रही है। कानून और प्रशासन ने भी लंबे समय तक इसी सोच को अपनाया। सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों में भी अक्सर यही माना गया कि बच्चे की जाति पिता से तय होगी।
लेकिन इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि—
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जाति केवल जैविक वंश का सवाल नहीं है
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यह सामाजिक उत्पीड़न, भेदभाव और परवरिश से भी जुड़ी है
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अगर बच्चा मां के समुदाय में सामाजिक रूप से स्वीकार किया गया है, तो कानून आंख मूंदकर पिता की जाति नहीं थोप सकता
पुराने फैसलों का हवाला, लेकिन नई दिशा
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने 1960 के दशक के वी.वी. गिरी केस और 2012 के रमेशभाई केस का भी संदर्भ लिया। इन मामलों में यह सिद्धांत सामने आया था कि जाति का निर्धारण केवल कागज पर नहीं, बल्कि सामाजिक वास्तविकता के आधार पर होना चाहिए।
हालांकि अब तक इन फैसलों को बहुत सीमित दायरे में लागू किया जाता रहा, लेकिन CJI सूर्यकांत की पीठ ने इन्हें नए संदर्भ में इस्तेमाल कर यह संकेत दे दिया कि कानून जड़ नहीं है, वह समाज के साथ बदलता है।
क्यों माना जा रहा है इसे “गेम-चेंजर फैसला”?
यह फैसला सिर्फ एक बच्ची को SC सर्टिफिकेट देने तक सीमित नहीं है। इसके दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं—
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यह पितृसत्तात्मक कानून व्यवस्था को चुनौती देता है
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यह मां की सामाजिक पहचान को कानूनी मान्यता देता है
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यह आरक्षण की फिलॉसफी को “वंश” से निकालकर “उत्पीड़न और परवरिश” से जोड़ता है
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला आने वाले समय में सैकड़ों याचिकाओं का आधार बन सकता है।
लेकिन क्या इससे सिस्टम में कमजोरी आएगी?
इस फैसले के बाद सबसे बड़ा सवाल मिसयूज और कैटेगरी स्विचिंग को लेकर उठ रहा है।
आलोचकों का कहना है कि—
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नॉन-एससी पिता जानबूझकर बच्चों को मां की जाति से जोड़कर आरक्षण का लाभ दिलाने की कोशिश कर सकते हैं
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कम्युनिटी-बेस्ड वेरिफिकेशन प्रक्रिया कमजोर हो सकती है
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प्रशासन के लिए यह तय करना मुश्किल होगा कि बच्चा वास्तव में किस सामाजिक वातावरण में पला-बढ़ा
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी संकेत दिया है कि हर मामला अपने तथ्यों पर तय होगा और यह कोई ओपन लाइसेंस नहीं है।
आरक्षण की आत्मा बनाम आरक्षण की राजनीति
यह फैसला एक बार फिर इस बहस को केंद्र में ले आया है कि आरक्षण का उद्देश्य क्या है?
क्या आरक्षण केवल वंशानुगत श्रेणियों का गणित है,
या फिर वह उन लोगों को ऊपर उठाने का माध्यम है, जिन्होंने सामाजिक भेदभाव झेला है?
CJI सूर्यकांत का फैसला साफ संकेत देता है कि अदालत अब आरक्षण को एक जीवित सामाजिक अवधारणा के रूप में देख रही है, न कि सिर्फ एक प्रशासनिक फार्मूला।

