पीएम के हस्तक्षेप से एनडीए का बंटवारा फाइनल
सीटों के बंटवारे में भी पिछड़ गया विपक्षी गठबंधन
चिराग पासवान का कद बढ़ा रहा भाजपा नेतृत्व
नई दिल्ली, 13 अक्टूबर (एजेंसियां)। काफी मशक्कत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद बिहार विधानसभा चुनाव के लिए एनडीए में सीटों का बंटवारा हो पाया। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ने पर सहमत हुए। जदयू के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा और भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान द्वारा पुष्टि किए गए इस समझौते के तहत चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को 29 सीटें दी गई हैं, जबकि जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) छह-छह सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
1996 में गठबंधन के बाद यह पहली बार है जब भाजपा और जदयू विधानसभा चुनाव में बराबर सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। 2020 में जदयू ने 122 सीटों पर और भाजपा ने 121 सीटों पर चुनाव लड़ा था। जदयू ने अपने हिस्से में से हम को सात सीटें दी थीं और भाजपा ने मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को अपने हिस्से में से 11 सीटें दी थीं। इस बार एलजेपी (रामविलास) और हम ने अधिक हिस्सेदारी के लिए पूरा दबाव बनाया था। चिराग पासवान की पार्टी ने शुरुआत में 40 और फिर 35 सीटों के लिए जोर लगाया, वहीं मांझी ने 15 सीटों की मांग की। एनडीए ने शुरू में एलजेपी (रामविलास) को 20-25 सीटों तक सीमित रखने की मांग की थी, लेकिन बाद में बढ़ानी पड़ी। अंतिम निर्णय दिल्ली में भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक के बाद लिया गया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली और बिहार के वरिष्ठ भाजपा नेता शामिल हुए।
चिराग की पार्टी की मांग बातचीत में एक बड़ा अड़चन थी। 2024 के लोकसभा चुनावों में पार्टी के मजबूत प्रदर्शन ने जहां उसने अपनी लड़ी हुई सभी पांच सीटों पर जीत हासिल की और कुल वोट शेयर का 6 प्रतिशत से ज़्यादा हासिल किया, उसने सौदेबाजी की ताकत दी। हालांकि भाजपा का कहना है कि पार्टी ने ये सीटें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के कारण जीतीं, न कि अपनी राजनीतिक ताकत के कारण। अपने विभाजन से एक साल पहले 2020 में लोजपा ने बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 135 पर चुनाव लड़ा था, जिसकी एनडीए को भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। 64 विधानसभा सीटों पर जहां पार्टी तीसरे या उससे नीचे स्थान पर रही, उसे जीत के अंतर से ज्यादा वोट मिले। इन सीटों में से चिराग की पार्टी ने 27 सीटों पर जदयू को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाया, जहां वह दूसरे स्थान पर रही।
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, लोजपा (रामविलास) को अभी भी अपनी योग्यता से ज्यादा सीटें मिली हैं। हम शुरू में पार्टी के लिए 20 से ज़्यादा सीटों के पक्ष में नहीं थे। फिर इसे बढ़ा कर 23 और फिर 26 कर दिया गया क्योंकि चिराग लगातार दबाव बना रहे थे। गठबंधन को मजबूत और एकजुट बनाए रखने के लिए, हम 29 सीटों पर सहमत हुए हैं। चिराग पासवान ने बहुत जोर लगाया। चूंकि वह केंद्र में एक प्रमुख सहयोगी हैं, इसलिए हमें उनकी मांगें माननी पड़ीं। लोजपा ने 40 सीटों से शुरुआत की, फिर 35 और अंततः 29 सीटों पर समझौता कर लिया। प्रधानमंत्री के फोन के बाद मांझी छह सीटों पर राजी हो गए। बताया जा रहा है कि उन्होंने भविष्य में एक एमएलसी पद की मांग की है। संजय झा ने बताया, महत्वपूर्ण बात यह है कि एनडीए पहले आगे बढ़ रहा है जबकि महागठबंधन सीटों को लेकर माथापच्ची कर रहा है। यह दर्शाता है कि हम एकजुट हैं।
आरएलएम ने छह सीटों पर सहमति जताई, क्योंकि उसे आश्वासन दिया गया था कि उपेंद्र कुशवाहा को अगले अप्रैल में कार्यकाल समाप्त होने के बाद भी राज्यसभा सीट दी जाएगी। आरएलएम महुआ, उजियारपुर, सासाराम, दिना
यह पहली बार था जब भाजपा ने सहयोगियों के साथ चर्चा का नेतृत्व किया, जबकि जदयू ने स्पष्ट कर दिया था कि वह छोटे सहयोगियों के साथ बातचीत से दूर रहेगी। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पार्टी ने गठबंधन में खुद को बड़ा भाई स्थापित करने के लिए भाजपा से एक सीट ज्यादा मांगी थी। पार्टी का तर्क था कि पिछले साल लोकसभा चुनावों में उसका स्ट्राइक रेट भाजपा से थोड़ा बेहतर था (उसने 16 में से 12 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा ने 17 सीटों पर चुनाव लड़कर 12 सीटें जीती थीं)। भाजपा ने जदयू की मांग से असहमति जताते हुए कहा कि 2020 में जदयू को मिली 43 सीटें उसकी 74 सीटों से काफ़ी कम थीं। अंत में नीतीश के नेतृत्व वाली पार्टी ने सीट-बंटवारे के फ़ॉर्मूले पर सहमति जता दी। सीटों के इस बंटवारे में नए सदस्यों या अप्रत्याशित उम्मीदवारों के लिए कोई जगह नहीं बची है, जिससे संभवतः मुकेश सहनी की वीआईपी की एनडीए में वापसी की संभावना भी खत्म हो गई है।
बिहार चुनाव के लिए एनडीए ने सीटों का बंटवारा तो कर लिया, लेकिन यह सवाल कायम है कि पिछले विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट जीतने वाली लोजपा को 29 सीटें कैसे मिल गईं? यह सवाल ज्यादा जरूरी इसलिए भी है क्योंकि पिछले चुनाव में मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा ने एनडीए के लिए चार सीटें जीती थीं, लेकिन उन्हें इस बार एक सीट और कम दी गई है। ऐसे में चिराग पर इतना विश्वास क्यों दिखाया गया?
बिहार में दलित वोटबैंक काफी अहम माने जाते हैं, वहां भी बात जब चिराग पासवान की आती है तो उनकी पकड़ी दुसाध समुदाय में सबसे ज्यादा है। चिराग के पिता रामविलास पासवान ने इसी दुसाध समुदाय को सशक्त कर बिहार की राजनीति में अपनी अलग जगह बनाई थी। 2023 की जातिगत जनगणना बताती है कि बिहार में दुसाध समुदाय की आबादी 5.31 फीसदी के आसपास है, इन्हें 70 से 80 लाख माना जा सकता है। दलित समुदाय में दुसाध को सबसे प्रभावशाली जाति के रूप में देखा जाता है। हाजीपुर, समस्तीपुर, वैशाली, मु
चिराग पासवान ने पिछले विधानसभा चुनाव में बगावत करते हुए 137 सीटों अपने उम्मीदवार उतारे थे। वे खुद को मोदी का हनुमान तो बता रहे थे, लेकिन नीतीश कुमार के साथ उनका तालमेल नहीं बैठ रहा था। इस वजह से उन्होंने उन सीटों पर खास फोकस रखा जहां पर जदयू को नुकसान पहुंच सकता था। चुनावी परिणाम बता रहे हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में चिराग की पार्टी ने सीट सिर्फ एक जीती, लेकिन जदयू को कई सीटों पर भारी नुकसान दिया। पिछले विधानसभा चुनाव में तो चिराग पासवान की पार्टी ने जदयू को नुकसान पहुंचाया, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 100 फीसदी स्ट्राइक रेट के साथ सभी 5 सीटों पर जीत दर्ज की। पासवान समुदाय से होने के बावजूद चिराग ने खुद को किसी एक जाति तक सीमित नहीं रखा है, वे जातियों की ज्यादा बात भी नहीं करते हैं। उनके मुद्दे तो बिहारी अस्मिता, रोजगार, कानून व्यवस्था हैं। ऐसे में मुद्दों की राजनीति करने में विश्वास रखने वाले चिराग खुद को सिर्फ एक वोटबैंक तक सीमित नहीं रखना चाहते हैं।
इस चुनाव में उन्होंने बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट का नारा दिया है। वे हर जनसभा में बिहार के विकास, उद्योग और रोजगार को प्राथमिकता दे रहे हैं। वे युवा वोटरों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में लगे हैं। यह वही वोटबैंक जिस पर तेजस्वी यादव की भी खास नजर है। बिहार के युवाओं पर चिराग पासवान का अच्छा प्रभाव है। एनडीए नेतृत्व इस प्रभाव के सियासी प्रतिफल को अच्छी तरह समझ रहा है।
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