डॉलर का कॉलर बदलने की आहट से छटपटाहट

 भारत-रूस-चीन गठजोड़ से हिल रहा अमेरिकी वर्चस्व

डॉलर का कॉलर बदलने की आहट से छटपटाहट

रिश्तों की तरह बदलता है हॉलीवुड का गिरगिटी रंग

शुभ-लाभ विमर्श

डोनाल्ड ट्रंप की बालबुद्धि ने भारत, रूस और चीन के एक होने की संभावना बढ़ा दी। भारत-रूस-चीन एक हो गए और ब्राजील जैसे देश साथ आ गए तो डॉलर की रंगदारी खत्म होने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। डॉलर का कॉलर बदलने की आहट से डोनाल्ड ट्रंप की छटपटाहट दुनिया देख रही है और मजे ले रही है। ट्रंप की हैसियत अब पाकिस्तान के टुटपुंजिए सैन्य प्रमुख के साथ डिनर और लंच करने भर की रह गई है। भारत-रूस-चीन गठजोड़ सिर्फ सेना या व्यापार तक सीमित नहीं हैबल्कि ये एक सोच हैजो पश्चिमी देशों के दबदबे और डॉलर की ताकत को चुनौती दे सकती है। दुनिया अब धीरे-धीरे पूछने भी लगी है कि हम सिर्फ डॉलर से क्यों बंधे रहें?

डोनाल्ड ट्रंप उस अमेरिकी चरित्र के प्रतिनिधि हैं जो स्वार्थ और अवसर देख कर अपना रंग बदलता रहा है। यही चरित्र अमेरिकी फिल्म उद्योग हॉलीवुड का भी है। वह भी सियासी चरित्र देख कर अपने रंग बदलता है। कभी अफगान अमेरिका का हीरो तो कभी अफगान अमेरिका का विलन। कभी चीन हीरो तो कभी विलन। कभी उत्तर कोरिया विलन तो कभी ट्रंप का हीरो। अब भारत हीरो के बजाय अमेरिका का विलन बनने ही वाला है। अमेरिका को जिस भी देश से समस्या होती हैसबसे पहले वह उसके चरित्र पर हमला कर माहौल बनाने की कोशिश करता है। हॉलीवुड के जरिए यह काम आसानी से होता रहा है। बानगी के तौर पर रेम्बो फिल्म ही देख लीजिए कि वियतनाम युद्ध में हार के बावजूद रेम्बो फिल्में अमेरिका को शक्तिशाली दिखाने का भ्रम फैलाती हैं। जबकि वियतनामीरूसी या अफगानी कैरेक्टर्स को हिंसक और बर्बर दिखाया जाता है। इस तरह की फिल्मों के जरिए अमेरिका न सिर्फ अपने युद्ध और नरसंहारों को नैतिक रूप से सही और जायज ठहराता हैबल्कि दुश्मन देशों को असभ्य और खतरनाक भी साबित करने की कोशिश करता है।

जब साल 1988 में रैम्बो फिल्म का थर्ड पार्ट रिलीज हुआतब हॉलीवुड ने अफगान मुजाहिदीन को सोवियत सेना के खिलाफ बहादुर और हीरो के रूप में पेश किया। क्योंकि उस समय अमेरिकाअफगान मुजाहिदीन का सोवियत संघ के खिलाफ समर्थन कर रहा था। लेकिन 9/11 के आतंकी हमले के बाद ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा के लिए हॉलीवुड की कहानी में ट्विस्ट आ गया। इसी हॉलीवुड ने साल 2012 में जीरो डार्क थर्टी जैसी फिल्में बनाईंजहां उन्हीं मुजाहिदीनों को आतंकवादी और विलेन के रूप में दिखाया गया।

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यह कहानी सिर्फ एक भू-राजनीतिक विश्लेषण नहीं है। बल्कियह कहानी उस गठजोड़ की हैजो रीगनॉमिक्स से शुरू हुआ और अब आरआईसी यानीरूसइंडिया और चीन के एकजुट होने तक पहुंच रहा है। इसमें गलवान की चोट भी हैचाइमेरिका का मोहभंग भी है और डी-डॉलराइजेशन की दस्तक भी है। ये सभी मिलकर पश्चिमी साम्राज्य को ध्वस्त करने जा रहे हैं।

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हम 1949 के फ्लैशबैक में चलें जब माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद अमेरिका ने चीन की नई सत्ता को मान्यता देने से इन्कार कर दिया था और ताइवान का समर्थन शुरू किया था। फिर कोरिया युद्ध में दोनों आमने-सामने आ गएजिससे रिश्तों में गहरी खामोशी छा गई और यह खामोशी 25 साल तक चली। इस बीच 1960 के दशक में दुनिया शीत युद्ध (कोल्ड वार) की दो ध्रुवीय गुटों में बंटी हुई थीजहां अमेरिका और यूएसएसआर यानिसोवियत संघ आमने-सामने थे। लेकिन यहां पर चीन के रूप में एक तीसरा खिलाड़ी भी जगह बना रहा था। 1970 के दशक की शुरुआत में समीकरण बदले। चीन और सोवियत संघ के बीच भी तनाव बढ़ने लगा और अमेरिका ने इस दूरी को अपने हित में भुनाने का फैसला किया। इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर अपनी शटल डिप्लोमेसी के लिए बहुत चर्चित हुए थे। उन्होंने पाकिस्तान के रास्ते गुप्त रूप से बीजिंग की यात्रा की। किसिंजर की शटल डिप्लोमेसी के बाद साल 1972 आया जब शीत युद्ध की गर्मागर्मी के बीच अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन पहुंचे। और इसी के साथ दोनों देशों की 25 साल पुरानी खामोशी टूटी। निक्सन का चीन जाना केवल एक कूटनीतिक यात्रा नहीं थीबल्कि यह सोवियत संघ के खिलाफ एक रणनीतिक समीकरण की शुरुआत थी। इसका मकसद सिर्फ एक ही थासोवियत संघ के खिलाफ चीन के रूप में दूसरा धड़ा तैयार करना।

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इसके बाद शंघाई कम्युनिक लाया गया। अमेरिका-चीनदोनों देशों के रिश्तों की शुरुआत हुईलेकिन कोई ठोस आर्थिक समझौता नहीं हुआ। असली फायदा कम्युनिस्ट राष्ट्र चीन को हुआजो अब तक बाजार में अलग-थलग पड़ा हुआ था लेकिन अब अमेरिका के पूंजीवादी सिस्टम का दोहन कर अपने आर्थिक ढांचे की जमीन तैयार कर रहा था।

1978-80 के दौरान आधुनिक चीन का निर्माता कहे जाने वाले देंग शियाओपिंग ने सुधार और खुले मार्केट की गैइग काइफांग की नीति शुरू की। और इसका मतलब होता है सुधार और खुलापन। देंग ने चीन की बंद इकॉनमी को मार्केट इकॉनमी में बदल दियाजिसे समाजवाद का चोला पहनाया गया। पहली बार चीन में स्पेशल इकोनॉमिक जोन्स बने और विदेशी पूंजी का स्वागत किया गया। चीन में पश्चिमी निवेशकों की लाइन लगने लगी जिसके परिणामस्वरूप आईबीएम, एचपी और मोटोरोला जैसी कंपनियां चीन में फैक्ट्रियां लगाने लगीं।

चीन को लुभाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रेगन ने चीन को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा दिया। 1980 के दशक में अमेरिका को सस्ते मैनुफैक्चरिंग की जरूरत थी और चीन को डॉलर एवं तकनीक की। रीगनॉमिक्स की नीतियों ने बाजार को और खोल दिया। अमेरिकी कंपनियां चीन में सेटअप लगाने लगीं। वालमार्ट, एप्पल, नाइकी जैसी कंपनियों ने चीन को 21वीं सदी आते-आते फैक्ट्री ऑफ द वर्ल्ड बना दिया। इसी बीच 1991 में सोवियत संघ का विखंडन हो गया। सोवियत संघ के बिखरने के बाद चीन और अमेरिका के बीच एक किस्म का परस्पर लाभ लेने वाली दोस्ती का क्रम चलता रहा। साल 2001 में चीन को डब्लूटीओ की सदस्यता मिली। यह अमेरिका का एक बड़ा दांव था और उसे उम्मीद थी कि ग्लोबल इकोनॉमी में आने से चीन उदारवादी बनेगा। लेकिन हुआ इसका उल्टा। चीन ने अमेरिकी बाजार में सस्ती वस्तुओं की बाढ़ लगा दी, जिससे अमेरिका की घरेलू इंडस्ट्री चरमरा गई। चीनी कंपनियां अमेरिकी टेक्नोलॉजी की कॉपी करने लगीं। चीन से इम्पोर्ट तेजी से बढ़ालेकिन चीन ने अमेरिकी सामानों की खरीद कम की और यहीं से दोनों देशों के बीच ट्रेड डेफिसिट का घमासान शुरू हुआ। नतीजा ये हुआ कि साल 1993 में अमेरिका का चीन के साथ व्यापार घाटा करीब $22 अरब डॉलर थाजो बढ़कर 2005 तक $202 अरब डॉलर हो गयायानि 12 साल में यह 9 गुना बढ़ गया। और यही असंतुलन आगे चलकर ट्रंप और बाइडेनदोनों की चाइना पॉलिसी पर हावी नजर आया।

2008 में वित्तीय संकट ने जब अमेरिका को तोड़कर रख दियातब चीन ने इस मौके का इस्तेमाल बाजार पर अपनी ताकत दिखाने में किया। स्टेट-कैपिटलिज्म और सेंट्रल बैंकिंग मॉडल को ग्लोबल मंच पर रखा गया। यही समय था जब चीन को लगने लगा कि वह अमेरिका को टक्कर दे सकता है। अब चीनडॉलर का सिर्फ ग्राहक नहींउसका विकल्प भी बनने की तरफ बढ़ने लगा। यही वो समय थाजब हॉलीवुड की फिल्मों में चायनीज विलेन दिखाई देने लगे। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल 2016 में खुलकर घोषणा की कि चीन दशकों से हमें लूट रहा है। ट्रंप के तेवर से ये साफ दिखने लगा कि उसके भीतर चीन को लेकर कितना आक्रोश भरा था। कोरोना वायरस को लगातार चायनीज वायरस कहना भी इसी गुस्से की झलक थी।

अब अमेरिका को सिर्फ चीन का डर नहीं बल्कि भारत-रूस-चीन के संभावित गठजोड़ का डर सता रहा है। कोविड महामारी के बीच जब 2022 में रूस और यूक्रेन एक दूसरे के सामने आएतब रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद उसने युआन और रूबल में व्यापार शुरू किया। चीन पहले से ही अपने डिजिटल युआन को बढ़ावा दे रहा था। यह वो समय था जब भारत भी रुपया-रूबल और अन्य द्विपक्षीय समझौतों की ओर बढ़ रहा था। इस प्रक्रिया को ही डी-डॉलराइजेशन कहा गया जिसने अमेरिकी आर्थिक प्रभुत्व की नींव हिलाना प्रारंभ कर दिया है।

डॉलर की दादागीरी से मुक्ति की सोच ने ही ब्रिक्स का नया रास्ता निकाला। इसीलिए ब्रिक्स के खिलाफ ट्रंप लगातार आग उगल रहे हैं। यह कह रहे हैं कि जो देश ब्रिक्स की नीतियों का समर्थन करेगाउस पर भारी मात्र में टैरिफ लगाया जाएगा। साल 2023-24 में ब्रिक्स का विस्तार हुआ। सऊदी अरबयूएईईरानमिस्र जैसे देश शामिल हुए। ये सभी देश पश्चिमी दबाव से बाहर निकलकर एक नए पावर सेंटर की तलाश में हैं। ब्रिक्स बैंकडिजिटल करेंसी और युआन में ट्रेड की चर्चाएं अमेरिका की चिंता का कारण बन चुकी हैं। डोनाल्ड ट्रंप ने इसी बीच कई देशों पर टैरिफ और आर्थिक धमकियां फिर से शुरू कर दीं। और इसका सबसे ताजा निशाना भारत है। क्योंकि ब्रिक्स में जो आरआईसी (रूस-इंडिया-चाइना) हैअमेरिका और ट्रंप को सबसे ज्यादा समस्या उसी से है। जिस दिन भारतरूस और चीन अपनी प्राथमिकताएं साझा करने लगेंगेउसी दिन वाशिंगटन को एहसास होगा कि एकध्रुवीय विश्व (यूनीपोलर वर्ल्ड) के दिन अब लद गए। अब अमेरिका का एकाधिकार इतिहास बन चुका है।

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