डीप स्टेट की साजिशों का अगला निशाना ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट
देश के विकास कार्यों को लेकर सुनियोजित भ्रम फैला रहीं सोनिया गांधी
सोनिया का लेख छाप कर भ्रम का वाहक बना अंग्रेजी अखबार
शुभ-लाभ चिंता
सोनिया गांधी और राहुल गांधी उसी अमेरिकी षडयंत्रकारी डीप स्टेट की लाइन को आगे लेकर चल रहे हैं जो भारत के विकास कार्यों में बाधा डाले और देश में अराजकता का सृजन करे। प्रत्येक विकास को आपदा बताना और हर बड़े प्रोजेक्ट को संविधान के खिलाफ दिखाना, सोनिया-राहुल और कांग्रेस पार्टी की स्टाइल बन चुकी है।
कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट को 72,000 करोड़ की बेकार योजना करार दिया। उन्होंने कहा कि यह प्रोजेक्ट निकोबारी और शोम्पेन आदिवासियों के लिए खतरा है और पर्यावरण को तबाह करेगा। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने द हिंदू अखबार में लिखे अपने लेख - द मेकिंग ऑफ एन इकोलॉजिकल डिजास्टर इन द निकोबार- में ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट को पूरी तरह बेकार और 72,000 करोड़ की खर्चीली योजना बताया। उन्होंने कहा कि यह प्रोजेक्ट जनजातीय समुदायों के लिए अस्तित्व का खतरा है और दुनिया की अनोखी वनस्पति और जीव-जंतुओं की विविधता को तबाह कर देगा। सोनिया ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि वह आदिवासियों के अधिकारों को कुचल रही है और कानूनी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ा रही है। सोनिया गांधी का लेख एकतरफा, डराने वाला और ओछी राजनीति से भरा हुआ लेख है।
अपने लेख में सोनिया गांधी कहती हैं कि यह प्रोजेक्ट निकोबारी और शोम्पेन आदिवासियों को उनकी जमीन से पूरी तरह हटा देगा। जबकि प्रोजेक्ट के लिए चुने गए इलाकों को बहुत सोच-समझकर तय किया गया है, ताकि आदिवासी बस्तियों को कम से कम नुकसान हो। गौर करने वाली बात ये है कि 2004 की सुनामी में निकोबारी लोगों के पुराने गांव तबाह हुए थे। उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन उसने गांवों को दोबारा बसाने या आदिवासियों को आधुनिक सुविधाएं देने के लिए कुछ खास नहीं किया। अब जब सरकार सड़क, बिजली और कनेक्टिविटी की बात करती है, तो कांग्रेस इसे बड़ा खतरा बताती है।
लेख के जरिए सोनिया गांधी देश को गलत जानकारियां देकर भ्रांति फैलाने की कोशिश कर रही हैं। सोनिया कहती हैं कि सरकार ने कानूनी प्रक्रिया और नियमों को नजरअंदाज किया और सामाजिक प्रभाव की जांच में खामियां हैं। लेकिन वे यह नहीं बतातीं कि इस प्रोजेक्ट को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल, पर्यावरण मंत्रालय की हाई पावर्ड कमेटी और नेशनल सेंटर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट (एनसीएससीएम) ने मंजूरी दी है। एनसीएससीएम की जमीनी जांच में पाया गया कि प्रोजेक्ट का इलाका सीआरजेड 1बी में है जहां बंदरगाह बनाना जायज है न कि सीआरजेड 1ए में, जहां निर्माण नहीं हो सकता। ये नियम तोड़ना नहीं, बल्कि नियमों का पालन है।
सोनिया गांधी ने जंगल कटाई की भरपाई के लिए पेड़ लगाने को पर्यावरण और इंसानियत की भयानक तबाही कहा। लेकिन वो ये नहीं बतातीं कि ये वन संरक्षण कानून के तहत जरूरी है, और इसकी सख्त निगरानी होती है। इसे पूरी तरह खारिज करना उन नियमों को नजरअंदाज करना है, जिन्हें भारत और सोनिया की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकारों ने दशकों तक माना। सोनिया गांधी यह बात छिपा लेती हैं कि भारत का 25 प्रतिशत कार्गो विदेशी बंदरगाहों से होकर जाता है। इसमें कोलंबो में चीन निर्मित टर्मिनल भी है, भारत का 40 प्रतिशत कारोबार संभालता है। वो ये भी नहीं कहतीं कि गलाथिया बे की 18-20 मीटर गहराई और पूर्व-पश्चिम शिपिंग रास्ते पर इसकी जगह भारत को सिंगापुर जैसा ट्रांसशिपमेंट हब बनाने का सौ साल में एक बार मिलने वाला मौका देती है। इससे हम बीजिंग से जुड़े बंदरगाहों पर निर्भरता खत्म कर सकते हैं। लेकिन कांग्रेस के लिए यह रणनीतिक बात जैसे है ही नहीं। पहले भी कांग्रेस सरकारों ने अंडमान-निकोबार में हवाई पट्टियां, रडार और बंदरगाहों के विस्तार को नाजुक पर्यावरण का हवाला देकर रोका। इसका नतीजा क्या निकला? ये द्वीप रणनीतिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ गए। सोनिया गांधी का लेख उसी चाल का नया हिस्सा है, जिसमें पर्यावरण का डर दिखाकर बड़े बदलाव वाले प्रोजेक्ट को रोका जाता है।
साल 2024 में नरेंद्र मोदी सरकार ने गलाथिया बे को प्रमुख बंदरगाह घोषित किया। 44,000 करोड़ रुपए का ये प्रोजेक्ट शिपिंग, बंदरगाह और जलमार्ग मंत्रालय के तहत बनेगा और इसे केंद्र से पैसा मिलेगा। इसे चार चरणों में बनाया जाएगा। पहला चरण 2028 तक पूरा होगा, जो 40 लाख टीईयू (कंटेनर) संभालेगा। 2058 तक ये बंदरगाह 1.6 करोड़ टीईयू तक संभाल सकता है। यह सिर्फ एक और बंदरगाह बनाने की बात नहीं है, बल्कि ये भारत की समुद्री कमजोरी को ठीक करने का मौका है। भारत के पूर्वी तट के ज्यादातर बंदरगाहों की गहराई 8-12 मीटर है, जो बड़े जहाजों के लिए कम है। दुनिया के बड़े बंदरगाह 12-20 मीटर गहरे हैं, जो 1.65 लाख टन से ज्यादा के जहाज संभाल सकते हैं। इसीलिए भारत का 25 प्रतिशत कार्गो कोलंबो, सिंगापुर और क्लैंग जैसे विदेशी बंदरगाहों से जाता है। इससे हर साल 1,500 करोड़ रुपए का सीधा नुकसान और अर्थव्यवस्था को 3,000-4,500 करोड़ का झटका लगता है।
गलाथिया बे की 18-20 मीटर की प्राकृतिक गहराई और पूर्व-पश्चिम समुद्री रास्ते के पास इसकी जगह इसे इस निर्भरता को खत्म करने के लिए बिल्कुल सही बनाती है। रणनीतिक तौर पर ये भारत को बांग्लादेश और म्यांमार के कार्गो के लिए सिंगापुर से मुकाबला करने की ताकत देता है, जहां अभी 70 प्रतिशत से ज्यादा कार्गो विदेशी बंदरगाहों से जाता है। सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सुरक्षा की बात को सावधानी से छिपाया। भारत का 40 प्रतिशत से ज्यादा ट्रांसशिपमेंट कोलंबो से होता है, जहां चीन एक टर्मिनल चलाता है और उसने वहां अरबों रुपए लगाए हैं। श्रीलंका बीजिंग के कर्ज में डूबता जा रहा है और वहां चीनी जासूसी जहाज भी रुकते हैं। इससे भारत की कमजोरी साफ दिखती है। ऐसे में गलाथिया बे का विरोध करना पर्यावरण की चिंता नहीं, बल्कि रणनीतिक भूल है।
सोनिया गांधी ने कहा कि शोम्पेन और निकोबारी आदिवासियों का अस्तित्व दांव पर है और भारत की आने वाली पीढ़ियां इस बड़े पैमाने की तबाही को नहीं झेल सकतीं। लेकिन सच इसके उलट है: भारत अब विदेशी बंदरगाहों और चीन के दबदबे को बंधक बनकर नहीं रह सकता। ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट पर्यावरण को नष्ट करने का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा को मज़बूत करने, नौकरियां पैदा करने और भारत को समुद्री ताकत बनाने का प्रोजेक्ट है। सोनिया का लेख पर्यावरण बचाने की गुहार कम, राजनीतिक चाल ज्यादा है। हर बड़े कदम को आपदा बताकर कांग्रेस नया विजन नहीं, बल्कि बदलाव का डर दिखाती है। असली आपदा होगी अगर ऐसा डर भारत के रणनीतिक भविष्य को पटरी से उतार दे।
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