42 फीसद आरक्षण देने वाले सरकारी आदेश पर हाईकोर्ट ने लगाई रोक

तेलंगाना के स्थानीय निकाय चुनाव में पिछड़े वर्ग को

42 फीसद आरक्षण देने वाले सरकारी आदेश पर हाईकोर्ट ने लगाई रोक

 नई दिल्ली, 9 अक्टूबर (एजेंसियां)। तेलंगाना उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को बड़ा झटका देते हुए आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में पिछड़े वर्गों को 42 प्रतिशत आरक्षण देने के आदेश पर रोक लगा दी है। यह फैसला गुरुवार को मुख्य न्यायाधीश अपरेश कुमार सिंह और न्यायमूर्ति जी.एम. मोहिउद्दीन की खंडपीठ ने सुनाया। अदालत ने इस मामले में सरकार को चार सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया है। साथ ही याचिकाकर्ताओं को भी सरकार के जवाब पर दो सप्ताह के भीतर प्रत्युत्तर दाखिल करने का अवसर प्रदान किया गया है। अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि जब तक इस मामले पर अंतिम सुनवाई नहीं हो जाती, तब तक 42 प्रतिशत आरक्षण संबंधी आदेश लागू नहीं किया जाएगा।

राज्य सरकार ने हाल ही में एक सरकारी आदेश (जी.ओ.) जारी कर स्थानीय निकायों में पिछड़े वर्गों को 42 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी। इस निर्णय के बाद राजनीतिक और सामाजिक हलकों में काफी हलचल मच गई थी। कई संगठनों और व्यक्तियों ने इसे संविधान के प्रावधानों के खिलाफ बताते हुए उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उनका कहना था कि इससे संविधान द्वारा निर्धारित कुल 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ‘इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार’ (मंडल आयोग केस, 1992) में तय किया था।

याचिकाकर्ताओं का यह भी तर्क था कि राज्य सरकार ने बिना किसी ठोस आंकड़ों या सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के ऐसे निर्णय को लागू करने की कोशिश की, जो न्यायोचित नहीं है। उनका कहना था कि पिछड़े वर्गों की जनसंख्या का आंकलन किए बिना उन्हें 42 प्रतिशत आरक्षण देना जनसंख्या अनुपात और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। अदालत में पेश याचिकाओं में यह भी कहा गया कि राज्य सरकार का यह कदम राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से उठाया गया है, जिससे चुनावों में एक वर्ग विशेष को साधने की कोशिश की जा रही है।

वहीं, सरकार की ओर से पेश हुए महाधिवक्ता ने अदालत को बताया कि पिछड़े वर्गों को अधिक प्रतिनिधित्व देने का फैसला व्यापक सामाजिक परामर्श और सर्वेक्षण के आधार पर लिया गया है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार सामाजिक न्याय को मजबूत करने और स्थानीय निकायों में समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। सरकार का यह मानना है कि पिछड़े वर्ग समाज के महत्वपूर्ण हिस्से हैं और उन्हें शासन व्यवस्था में पर्याप्त भागीदारी मिलनी चाहिए।

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अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कहा कि यह मामला गहन परीक्षण का विषय है और यह जांचना आवश्यक है कि क्या राज्य सरकार का निर्णय संवैधानिक प्रावधानों और उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देशों के अनुरूप है या नहीं। अदालत ने स्पष्ट किया कि जब तक इस विषय पर विस्तार से सुनवाई नहीं हो जाती, तब तक आरक्षण का बढ़ा हुआ प्रतिशत लागू नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए 42 प्रतिशत आरक्षण पर फिलहाल रोक लगा दी।

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इस निर्णय के बाद राज्य में राजनीतिक तापमान बढ़ गया है। विपक्षी दलों ने सरकार पर संवैधानिक सीमाओं की अवहेलना करने का आरोप लगाया है। विपक्ष का कहना है कि सरकार ने जल्दबाजी में और राजनीतिक लाभ के लिए यह फैसला लिया, जिससे सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता है। कांग्रेस और भाजपा ने सरकार से मांग की है कि वह पिछड़े वर्गों के वास्तविक आंकड़ों के आधार पर ही नीति बनाए और अदालत के निर्देशों का सम्मान करे। वहीं, सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के नेताओं ने कहा कि सरकार सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर रही है और पिछड़े वर्गों को उचित हिस्सा दिलाना उसकी प्राथमिकता है।

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कई सामाजिक संगठनों ने भी अदालत के फैसले का स्वागत किया है। उनका कहना है कि यह निर्णय न्यायपालिका की निष्पक्षता और संविधान की मर्यादा को बनाए रखने वाला है। उनका मत है कि यदि कोई भी सरकार आरक्षण की सीमा को बढ़ाना चाहती है तो उसे ठोस आंकड़ों और वैज्ञानिक सर्वेक्षण के आधार पर कदम उठाना चाहिए।

कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला केवल तेलंगाना ही नहीं, बल्कि देश के अन्य राज्यों के लिए भी नज़ीर बन सकता है। कई राज्यों में आरक्षण सीमा को लेकर समय-समय पर विवाद उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई 50 प्रतिशत सीमा को पार करना अब तक केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही स्वीकार किया गया है, जैसे तमिलनाडु में, जहां राज्य ने अपने विशेष अधिनियम के माध्यम से आरक्षण सीमा को बढ़ाया था। हालांकि, तेलंगाना के मामले में अभी तक ऐसा कोई संवैधानिक संशोधन या विशेष प्रावधान नहीं किया गया है।

अदालत का यह अंतरिम आदेश न केवल सरकार के लिए बल्कि स्थानीय निकाय चुनावों की तैयारियों के लिए भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। अब जब तक अदालत इस मामले में अंतिम फैसला नहीं सुनाती, तब तक चुनाव आयोग को यह तय करना होगा कि आगामी चुनावों में किस आरक्षण व्यवस्था के तहत सीटों का बंटवारा किया जाएगा।

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि अदालत अंततः इस आदेश को निरस्त करती है, तो यह राज्य सरकार के लिए एक बड़ी असफलता होगी। वहीं, अगर सरकार अदालत को यह साबित कर पाती है कि उसके पास आरक्षण बढ़ाने के लिए पर्याप्त आंकड़े और संवैधानिक आधार हैं, तो यह फैसला भविष्य में अन्य राज्यों को भी प्रभावित कर सकता है।

फिलहाल अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सरकार को चार सप्ताह के भीतर अपना पक्ष प्रस्तुत करना होगा और इसके बाद ही आगे की सुनवाई होगी। अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं को सरकार के जवाब पर दो सप्ताह का समय दिया जाएगा ताकि वे अपना प्रत्युत्तर दाखिल कर सकें। इसके बाद ही अदालत इस पर अंतिम निर्णय देगी।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर देश में आरक्षण नीति की सीमाओं और सामाजिक न्याय की अवधारणा पर बहस को जन्म दे दिया है। जहां एक ओर पिछड़े वर्गों के संगठनों का मानना है कि उन्हें अभी भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है, वहीं दूसरी ओर कई विशेषज्ञों का कहना है कि आरक्षण की सीमा को तोड़ना संवैधानिक संतुलन के लिए खतरनाक हो सकता है। अब सबकी निगाहें उच्च न्यायालय की अगली सुनवाई पर टिकी हैं, जो तय करेगी कि तेलंगाना में आरक्षण व्यवस्था किस दिशा में आगे बढ़ेगी।

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