समाधान कम सियासत और समस्या ज्यादा
उत्तर प्रदेश आउटसोर्स सेवा निगम
दिनकर कपूर
लखनऊ, 07 सितंबर। उत्तर प्रदेश सरकार ने विगत 2 सितंबर 2025 को उत्तर प्रदेश आउटसोर्स सेवा निगम लिमिटेड का गठन करने का फैसला किया है। सरकार का कहना है कि इस निगम के बनने के बाद प्रदेश में सरकारी विभागों के कार्यों में चल रही आउटसोर्सिंग अधिक पारदर्शी होगी। कर्मचारियों को पूरा मानदेय मिलेगा और मासिक वेतन के साथ ही उनके ईपीएफ और ईएसआई खातों में सीधे पैसा जाएगा। आउटसोर्सिंग कर्मचारियों के लिए 16 से 20 हजार रुपए प्रतिमाह मानदेय निर्धारित किया गया है और यह प्रावधान किया गया है कि 3 साल तक विभाग में आउटसोर्स कर्मचारी अपनी सेवा प्रदान कर सकेंगे। कहा जा रहा है कि आउटसोर्सिंग एजेंसियों का चयन विभाग के बजाए अब निगम जेम पोर्टल के माध्यम से निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया से करेगा।
कम्पनीज एक्ट-2013 के सेक्शन-8 के अंतर्गत इस निगम लिमिटेड का गठन किया गया है, जो नॉन प्रॉफिटेबल कंपनी है। प्रावधान किया गया है कि आउटसोर्सिंग कंपनी के माध्यम से कर्मचारी उपलब्ध कराने के एवज में निगम विभाग से प्रत्येक कर्मचारी से एक प्रतिशत सेस की वसूली करेगा जिसे निगम कार्यों पर खर्च किया जाएगा और शेष धनराशि आउटसोर्स मजदूरों के वेलफेयर के लिए खर्च की जाएगी। यह भी निगम के गठन के दस्तावेज में रखा गया है कि सृजित पदों पर आउटसोर्सिंग की भर्ती नहीं की जाएगी। आउटसोर्सिंग में एससी, एसटी, ओबीसी, ईडब्ल्यूएस,
इस आयोग के गठन के बाद समाज में मिश्रित प्रतिक्रियाएं हैं। कुछ लोग इसे सरकार का ऐतिहासिक कदम मान रहे हैं तो वहीं कुछ लोग इसे स्थाई भर्ती की जगह आउटसोर्सिंग से काम कराने की कार्रवाई के रूप में देख रहे हैं। यदि इसके दस्तावेजों को गौर से देखा जाए तो कहा गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार के कार्मिक विभाग के शासनादेश दिनांक 6 जनवरी 2020 में स्पष्ट प्रावधानों के अनुसार सृजित पदों के विरुद्ध आउटसोर्सिंग के आधार पर सेवाएं लेना पूर्णतया प्रतिबंधित है और आउटसोर्सिंग पद का सृजन भी पूर्णतया वर्जित है। इसके बावजूद इस निगम द्वारा चार श्रेणियां में पदों का विभाजन किया गया है। श्रेणी एक में चिकित्सीय, इंजीनियरिंग, व्याख्
यही कारण है कि इस निगम के गठन के पूर्व प्रदेश के लगभग जितने भी विभाग हैं सभी विभागों से अनापत्ति हासिल की गई है। स्पष्ट है कि यह सारी सेवाएं जो अभी स्थाई कामों और सृजित पदों में हो रही हैं आने वाले समय में उन सबके आउटसोर्सिंग यानी संविदा प्रथा में जाने की तैयारी इस निगम के गठन के साथ की गई है। सब लोग अवगत हैं कि ठेका मजदूर कानून 1970 की धारा 10 स्पष्ट रूप से कहती है कि परमानेंट नेचर के काम में संविदा ठेका प्रथा लागू नहीं की जाएगी। इसके बावजूद राष्ट्रपति भवन से लेकर हर विभाग में धीरे-धीरे संविदा प्रथा चालू कर दी गई है, जिसके जरिए स्थाई कामों और सृजित पदों के सापेक्ष बेहद कम मानदेय या पारिश्रमिक पर काम कराकर मजदूरों और कर्मचारियों की श्रम शक्ति की बड़े पैमाने पर लूट की जा रही है। एक ही उदाहरण से इस निगम के द्वारा किए जा रहे न्यूनतम पारिश्रमिक भुगतान के दावे के बारे में समझ सकते हैं। चिकित्सीय सेवाओं के लिए एमबीबीएस डॉक्टर का न्यूनतम पारिश्रमिक निगम की तरफ से 40000 रुपए प्रतिमाह तय किया गया है। चिकित्सा विभाग के अधिकारियों से बात करने पर बताया गया कि इस समय संविदा पर जो एमबीबीएस डॉक्टर सरकारी अस्पतालों में नियुक्त किये जा रहे हैं उन्हें 1 लाख रुपए मानदेय दिया जा रहा है। जो डॉक्टर ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी विभिन्न योजनाओं के तहत नियोजित हो रहे हैं वह भी 60-70 हजार रुपए पा रहे हैं। यदि सृजित पद के सापेक्ष सरकारी भर्ती से कोई डॉक्टर आता है तो उसकी प्रारंभिक तनख्वाह करीब 87000 बनती है। ऐसे में लोग समझ सकते हैं कि इससे कितनी बड़ी लूट का भविष्य में रास्ता खोला जा रहा है।
हालत यह है कि इस निगम का ही पूरा स्टाफ आउटसोर्सिंग कर्मचारियों से नियुक्त होगा। बोर्ड में कार्यरत महानिदेशक और कार्यकारी निदेशक व वित्त नियंत्रक के अलावा सारे पद जनरल मैनेजर, मैनेजर, महानिदेशक का व्यक्तिगत सहायक, कंपनी सचिव, सीनियर अकाउंटेंट, डाटा एंट्री ऑपरेटर, कार्यालय अधीनस्थ कर्मी, चौकीदार, स्वीपर सफाई कर्मी सब आउटसोर्स से ही नियुक्त किए जाएंगे। यदि सरकार यह कह रही है कि यह निगम स्थाई रूप से बनाया गया है तो आउटसोर्स से नियुक्त किए गए इसके सारे कर्मचारियों की ही नियुक्ति खुद योगी सरकार के शासनादेश के अनुसार गैरकानूनी है। यही नहीं जिस गवर्नमेंट मार्केट प्लेस पोर्टल यानी जेम पोर्टल की बात बार-बार की जा रही है, वह कोई नई बात नहीं है। भारत सरकार पूर्व में ही सभी सेवाओं और सामानों, खनन, टेंडर आदि को जेम पोर्टल पर ही करने की नीति लागू की हुई है। जिसके बदले में भारत सरकार का वित्त मंत्रालय न्यूनतम सेवा शुल्क के बतौर 3.85 प्रतिशत शुल्क कंपनियों से लेता है।
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि यह निगम आने वाले समय में खुद कार्यों को कराएगा। इसके बारे में भी इसकी बहुत स्पष्ट व्यवस्था में कहा गया है। निगम सिर्फ एक नियामक निकाय के बतौर काम करेगा। यह किसी भी कार्य को खुद नहीं करेगा बल्कि विभाग द्वारा कार्य मांगे जाने पर निगम जेम पोर्टल के माध्यम से आउटसोर्स कंपनी का चयन करेगा और यह कम्पनी अपने कर्मचारियों की नियुक्ति करेगी। कर्मी शुद्ध रूप से आउटसोर्स कम्पनी के कर्मचारी माने जाएंगे जिनका सरकार से कोई वास्ता नहीं है। दरअसल इसमें भी बड़ा खेल है। विभाग द्वारा आउटसोर्स कम्पनी को चयनित करने और काम देने पर प्रधान नियोक्ता विभाग होता है और श्रम कानूनों के तहत सामाजिक सुरक्षा, वेतन और अन्य सुविधाएं श्रमिक को देना उसकी ही जवाबदेही है। अब इस प्रक्रिया में विभाग और सरकार इस सब से बच निकलेगी। निगम ने आउटसोर्स एजेंसी का न्यूनतम 3 वर्ष कार्य करने का प्रावधान किया है, जो कर्मचारियों के ग्रेच्युटी अधिकार का हनन है। ग्रेच्युटी एक्ट के अनुसार 5 वर्ष की कार्यावधि के बाद ही यह कर्मी को प्राप्त है। साफ है कि 3 वर्ष के प्रावधान से कर्मचारी ग्रेच्युटी से वंचित रह जाएंगे।
सवाल यह भी उठ रहा है कि निजी क्षेत्र में अभी आरक्षण की कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। ऐसे में एक शासनादेश द्वारा निजी कंपनियों को क्या सरकार आरक्षण के लिए बाध्य कर सकती है? यह भी लोगों को शक है कि कहीं ऐसा ना हो कि इस व्यवस्था के खिलाफ निजी कंपनियां न्यायालय की ओर न बढ़ जाएं। जहां तक ईपीएफ और ईएसआई की बात है उसकी भी एक न्यूनतम सीलिंग इस एक्ट में है। 15000 रुपए से ज्यादा पारिश्रमिक पाने वाले श्रमिक ईपीएफ और ईएसआई के दायरे में नहीं आते हैं। ऐसे में सरकार उनके ऊपर इसे कैसे लागू करेगी यह देखना बाकी है। जहां तक अंत्येष्टि के लिए 15000 रुपए श्रमिक को दिए जाने, मातृत्व हित लाभ देने, इलाज की अवधि में 70 प्रतिशत वेतन देने की बात है यह सब ईएसआई लाभों में खुद ही मौजूद है। इसमें आउटसोर्सिंग कम्पनी, सरकार अथवा विभाग की तरफ से एक पैसा भी खर्च नहीं किया जाएगा। पेंशन, मृत्यु हितलाभ भी ईपीएफ के नियमों में ही आते हैं।
सरकार का यह दावा भी खोखला है कि इस निगम के बनने के बाद आउटसोर्सिंग कम्पनियां मनमानी नहीं कर पाएंगी। निगम की व्यवस्था में जरूर यह प्रावधान है कि अनियमितता बरतने वाली कम्पनियों को ब्लैक लिस्टेड और दंडित किया जाएगा पर यह कैसे होगा इसकी क्या प्रक्रिया होगी इस पर कोई बात नहीं कही गई है। जहां तक न्यूनतम मजदूरी की बात है सातवें वेतन आयोग ने देश में 21000 रुपए न्यूनतम मजदूरी तय की थी। जो मौजूदा महंगाई दर के अनुसार 26000 रुपए होनी चाहिए। उस हिसाब से 16000 से 20000 रुपए के मासिक पारिश्रमिक की घोषणा बेहद कम है। उत्तर प्रदेश में तो हालत इतनी बुरी है कि 2014 में यहां न्यूनतम मजदूरी का वेज रिवीजन किया गया था, जो न्यूनतम मजदूरी कानून के प्रावधानों के अनुसार पांच वर्ष बाद यानी 2019 में होना था, जिसे आज तक नहीं किया गया।
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