कमजोर कांग्रेसी ढांचे से परेशान राजद, बिखर रहा विपक्षी कुनबा

महागठबंधन में मचा घमासान: सीटों के बंटवारे ने बढ़ाई कलह

कमजोर कांग्रेसी ढांचे से परेशान राजद, बिखर रहा विपक्षी कुनबा


पटना, , 21 अक्टूबर, (एजेंसियां)।  बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन के भीतर गहराती दरारें अब खुलकर सामने आ गई हैं। सीटों के बंटवारे को लेकर चली लंबी रस्साकशी, हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के बाहर होने और कई सीटों पर सहयोगी दलों के आमने-सामने आने से विपक्षी गठबंधन की एकजुटता पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। दूसरे चरण के नामांकन प्रक्रिया पूरी होने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि राजद और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने में जुट गए हैं।

243 सदस्यीय विधानसभा की 121 सीटों पर अब 1,314 उम्मीदवार मैदान में हैं। इन सीटों पर 6 नवंबर को मतदान होगा। चुनाव आयोग ने कुल 61 नामांकन वापस लिए जबकि 300 से अधिक नामांकन खारिज कर दिए। लेकिन असली चर्चा इस बात की है कि जो गठबंधन एनडीए को चुनौती देने उतरा था, वह खुद अंदरूनी कलह से जूझ रहा है।

राजद की चाल—सहयोग से ज्यादा स्वार्थ
विपक्षी महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी और दो बार की चुनावी विजेता रही राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने इस बार 143 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। तेजस्वी यादव की रणनीति साफ दिखती है—कांग्रेस को सीमित करना और अपने संगठन को मजबूत बनाना। राजद ने अपनी सूची तब जारी की जब अधिकांश उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह मिल चुके थे और नामांकन प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी थी। यह देर से आई सूची कांग्रेस के लिए असहज स्थिति पैदा करने वाली रही।

हालांकि, कांग्रेस से सीधा टकराव टालने के लिए राजद ने कुटुम्बा विधानसभा सीट से उम्मीदवार नहीं उतारा, जहाँ बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार राम मैदान में हैं। यह एक रणनीतिक कदम था ताकि शीर्ष स्तर पर गठबंधन का दिखावा कायम रखा जा सके। लेकिन ज़मीनी हकीकत अलग है—लालगंज, वैशाली और कहलगाँव जैसे क्षेत्रों में राजद और कांग्रेस के उम्मीदवार आमने-सामने हैं। इन टकरावों ने कार्यकर्ताओं में भ्रम और असंतोष दोनों बढ़ा दिए हैं।

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वीआईपी और राजद के रिश्तों में तल्खी
महागठबंधन में सबसे जटिल समीकरण विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के साथ बना है। वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने पहले 40 से अधिक सीटों की माँग की थी और तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने पर उपमुख्यमंत्री पद की उम्मीद जताई थी। पर अब पार्टी मात्र 16 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हुई। यह समझौता मजबूरी का प्रतीक बन गया है।

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तारापुर सीट पर वीआईपी के प्रत्याशी सकलदेव बिंद ने नामांकन वापस लेकर भाजपा में शामिल हो गए, जिससे राजद की स्थिति कमजोर पड़ गई। गौरा बोराम में तो स्थिति और विचित्र हो गई—राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद ने खुद बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को पत्र भेजकर वीआईपी उम्मीदवार संतोष सहनी के समर्थन की घोषणा की, लेकिन उसी सीट पर राजद के चिन्ह "लालटेन" से नामांकन करने वाले अफ़ज़ल अली ने पीछे हटने से इनकार कर दिया। इससे दरभंगा जिले में कार्यकर्ताओं के बीच गहरा असमंजस फैल गया है।

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कांग्रेस की हालत—कमजोर ढांचा और घटती सीटें
कांग्रेस की स्थिति इस बार पहले से भी ज्यादा कमजोर दिख रही है। 2020 में पार्टी ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से सिर्फ 19 पर जीत हासिल हुई थी। इस बार वह केवल 61 सीटों पर लड़ रही है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यह गठबंधन के भीतर उनकी उपेक्षा का परिणाम है, जबकि राजद का तर्क है कि पार्टी का प्रदर्शन और संगठन दोनों कमजोर हैं।

राजापाकर, बछवाड़ा और रोसड़ा जैसी सीटों पर कांग्रेस को न केवल भाजपा बल्कि महागठबंधन के भीतर से भी चुनौती मिल रही है। राजापाकर में कांग्रेस की मौजूदा विधायक प्रतिमा कुमारी दास अपनी सीट बचाने में जुटी हैं, लेकिन इस क्षेत्र में वाम दलों और भाजपा दोनों की सक्रियता कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर रही है।

राजद के भीतर विद्रोह—रितु जायसवाल बनीं सिरदर्द
महागठबंधन की कमजोर कड़ी सिर्फ कांग्रेस नहीं है, राजद भी अब आंतरिक विद्रोह की चपेट में है। परिहार सीट पर पार्टी की महिला शाखा की प्रमुख रितु जायसवाल ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया है। वह पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे की बहू को टिकट दिए जाने से नाराज हैं। उनका आरोप है कि पूर्वे की वजह से उन्हें पिछले चुनाव में मामूली हार का सामना करना पड़ा था। रितु का विद्रोह पार्टी के भीतर महिलाओं और युवाओं में असंतोष को बढ़ा रहा है।

पप्पू यादव का प्रभाव और कांग्रेस की दुविधा
पूर्णिया, कटिहार और आसपास के इलाकों में कांग्रेस के लिए एक और चुनौती है—पप्पू यादव। निर्दलीय सांसद पप्पू यादव का क्षेत्र में खासा प्रभाव है, और इस बार उन्होंने अपने समर्थकों को कई सीटों पर उतार दिया है। कहा जा रहा है कि उनके वफादारों को कांग्रेस ने टिकट देने से परहेज किया और जो टिकट दिए गए, वे कमजोर सीटों पर। इससे पार्टी में असंतोष बढ़ा है। दिलचस्प बात यह है कि पप्पू यादव की पत्नी रंजीत रंजन छत्तीसगढ़ से कांग्रेस की राज्यसभा सांसद हैं, लेकिन बिहार में कांग्रेस संगठन के साथ उनका तालमेल कमजोर पड़ गया है।

वाम दलों की सधी रणनीति
महागठबंधन के भीतर वामदलों ने अपेक्षाकृत सधी हुई रणनीति अपनाई है। भाकपा (माले) लिबरेशन, जिसने 2020 में 12 सीटों पर जीत हासिल कर मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी, इस बार 20 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। भाकपा ने 9 और माकपा ने 4 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। वाम दलों का कहना है कि वे कम सीटों पर चुनाव लड़कर गठबंधन को एकजुट रखना चाहते हैं, लेकिन अंदरूनी सूत्र मानते हैं कि वे भी राजद और कांग्रेस की खींचतान से असहज हैं।

राजनीतिक विश्लेषण—बिखराव से एनडीए को फायदा
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महागठबंधन के भीतर चल रही यह कलह एनडीए के लिए अप्रत्याशित लाभ का कारण बन सकती है। भाजपा और जदयू ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा काफी पहले कर दी थी और अधिकांश सीटों पर तालमेल मजबूत है। सम्राट चौधरी के नेतृत्व में भाजपा अपने अभियान को पूरी तरह केंद्रित कर चुकी है। इसके विपरीत, महागठबंधन अभी भी टिकट वितरण और बगावत जैसे मुद्दों से जूझ रहा है।

एक वरिष्ठ राजनीतिक पर्यवेक्षक के शब्दों में—“राजद और कांग्रेस में तालमेल की कमी ने कार्यकर्ताओं का उत्साह तोड़ा है। तेजस्वी यादव की कोशिश है कि वे गठबंधन के नेता बने रहें, लेकिन कमजोर कांग्रेस और असंतुष्ट सहयोगियों के साथ यह राह आसान नहीं।”

एकजुटता के बजाय अविश्वास की लड़ाई
बिहार का यह चुनाव न सिर्फ सत्ता की होड़ है, बल्कि विपक्षी दलों की आंतरिक क्षमता की भी परीक्षा है। महागठबंधन के दल जिस एकजुटता का दावा कर रहे थे, वह अब कागजों पर सिमटती दिख रही है। राजद अपनी पकड़ बनाए रखने में लगी है, कांग्रेस अस्तित्व के संकट से गुजर रही है, और छोटे सहयोगी दल बगावत या असंतोष की राह पर हैं।

ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि महागठबंधन का “महत्वाकांक्षा का खेल” अब “महाभारत” में बदलता जा रहा है—जहाँ हर सहयोगी खुद को “अर्जुन” समझ रहा है, लेकिन “कृष्ण” कोई नहीं दिख रहा।