दस साल में तीन गुना बढ़ा देश के 28 राज्याें का कर्ज
कैग रिपोर्ट में हुआ खुलासा
नई दिल्ली, 20 सितम्बर, (एजेंसियां) । कैग (भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) की ताजा रिपोर्ट ने देश की वित्तीय स्थिति को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि पिछले दस वर्षों में देश के 28 राज्यों का कर्ज तीन गुना तक बढ़ गया है। यह स्थिति न केवल राज्यों की आर्थिक सेहत पर दबाव डाल रही है, बल्कि आने वाले वर्षों में विकास योजनाओं और कल्याणकारी कार्यक्रमों के संचालन पर भी इसका गहरा असर पड़ सकता है। रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि राज्यों ने अपने कर्ज प्रबंधन की रणनीतियों में सुधार नहीं किया, तो वे वित्तीय असंतुलन के जाल में फंस सकते हैं।
कैग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2013-14 में जहां राज्यों का कुल कर्ज लगभग 15 लाख करोड़ रुपये था, वहीं 2023-24 तक यह बढ़कर 45 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया है। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे और सामाजिक कल्याण योजनाओं पर खर्च बढ़ने के साथ-साथ चुनावी वादों को पूरा करने की मजबूरी प्रमुख कारण बताए गए हैं। साथ ही कोविड-19 महामारी के दौरान हुए भारी खर्च और राजस्व में कमी ने भी राज्यों की आर्थिक स्थिति को और कमजोर किया।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कर्ज में बढ़ोतरी का सबसे बड़ा कारण राजस्व प्राप्तियों की धीमी वृद्धि है। कई राज्यों में कर संग्रहण अपेक्षाकृत कमजोर रहा है, जबकि व्यय लगातार बढ़ता गया। विशेषकर सब्सिडी, वेतन, पेंशन और मुफ्त योजनाओं पर होने वाला खर्च तेजी से बढ़ा है। कई राज्यों ने अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए मुफ्त बिजली, पानी और परिवहन जैसी योजनाएँ लागू कीं, जिससे तत्काल तो जनता को राहत मिली लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह राज्यों की आर्थिक स्थिति पर भारी पड़ा।
कैग ने यह भी संकेत दिया कि कई राज्य अपने उधारी की सीमाओं को पार कर चुके हैं। वित्तीय अनुशासन की कमी और योजनाओं में पारदर्शिता न होने से कर्ज की स्थिति और गंभीर होती जा रही है। रिपोर्ट में चेताया गया है कि यदि यही हालात बने रहे तो राज्यों को अपने विकास कार्यों के लिए कर्ज चुकाने में कठिनाई होगी और केंद्र से मिलने वाली सहायता पर निर्भरता और बढ़ेगी।
राजनीतिक हलकों में इस रिपोर्ट को लेकर जोरदार बहस छिड़ गई है। विपक्षी दलों ने राज्य सरकारों पर लापरवाह वित्तीय नीतियों का आरोप लगाते हुए कहा है कि कर्ज में यह बढ़ोतरी जनता पर बोझ डालने की साजिश है। उनका कहना है कि सरकारें अल्पकालिक राजनीतिक फायदे के लिए जनता को मुफ्त की योजनाओं का लालच देती हैं, लेकिन अंततः इसकी कीमत करदाताओं को चुकानी पड़ती है। विपक्ष ने मांग की है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस पर ठोस नीति तैयार करें और जवाबदेही तय करें।
दूसरी ओर, कई राज्य सरकारों ने इस पर अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि कर्ज में बढ़ोतरी केवल उनकी नीतियों की वजह से नहीं, बल्कि देश और वैश्विक परिस्थितियों का भी परिणाम है। उनका कहना है कि कोविड-19 महामारी ने राज्यों की अर्थव्यवस्था पर असाधारण दबाव डाला, जिसके चलते स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत पैकेज और आर्थिक प्रोत्साहन योजनाओं पर भारी खर्च करना पड़ा। साथ ही केंद्र से मिलने वाले हिस्से में कटौती और जीएसटी क्षतिपूर्ति के मुद्दे ने भी राज्यों की स्थिति को और कमजोर किया।
विशेषज्ञों का मानना है कि कर्ज में वृद्धि एक गंभीर समस्या है, लेकिन इसे केवल नकारात्मक रूप से नहीं देखा जा सकता। अगर यह कर्ज बुनियादी ढांचे और उत्पादक क्षेत्रों में लगाया जाता है तो यह लंबे समय में अर्थव्यवस्था को मजबूती भी दे सकता है। समस्या तब पैदा होती है जब कर्ज का इस्तेमाल गैर-उत्पादक क्षेत्रों और तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है। विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि राज्यों को अपने खर्च की प्राथमिकताएं तय करनी होंगी और कर संग्रहण की क्षमता बढ़ानी होगी।
रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि आने वाले वर्षों में राज्यों पर ब्याज भुगतान का बोझ और बढ़ेगा। पहले ही कई राज्यों की आय का बड़ा हिस्सा केवल ब्याज चुकाने में चला जाता है, जिससे विकास कार्यों के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं बचते। यह स्थिति राज्य सरकारों की स्वायत्तता और योजनाओं की गति दोनों को प्रभावित करती है।
कुल मिलाकर, कैग की रिपोर्ट ने देश की आर्थिक नीतियों और राज्यों की वित्तीय अनुशासन पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं। राज्यों का तीन गुना बढ़ा कर्ज केवल आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि यह आने वाले समय में जनता की जीवनशैली, विकास कार्यों और सामाजिक ढांचे पर गहरा असर डाल सकता है। अब यह देखना होगा कि राज्य सरकारें और केंद्र मिलकर इस चुनौती का सामना किस तरह करते हैं और क्या ठोस कदम उठाए जाते हैं। लेकिन इतना तय है कि यह खुलासा आने वाले समय में राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही मोर्चों पर बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है।